श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.6.32 
देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
देव—पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् (श्रीकृष्ण) द्वारा; दत्ताम्—प्रदत्त; इमाम्—इस; वीणाम्—वीणा को; स्वर—स्वर, बोल; ब्रह्म—दिव्य; विभूषिताम्—अलंकृत; मूर्च्छयित्वा—स्पन्दन करती; हरि-कथाम्—दिव्य सन्देश को; गायमान:—निरन्तर गाते हुए; चरामि—विचरण करता हूँ; अहम्—मैं ।.
 
अनुवाद
 
 और इस तरह मैं भगवान् की महिमा के दिव्य सन्देश का निरन्तर गायन करते हुए और इस वीणा को झंकृत करते हुए विचरण करता रहता हूँ, जो दिव्य ध्वनि से पूरित है और जिसे भगवान् कृष्ण ने मुझे दिया था।
 
तात्पर्य
 लिंग पुराण में नारद को भगवान् कृष्ण द्वारा प्रदत्त तारयुक्त वाद्य यंत्र वीणा का वर्णन दिया गया है और इसकी पुष्टि श्रील जीव गोस्वामी द्वारा की गई है। यह दिव्य वाद्य भगवान् श्रीकृष्ण तथा नारद जी से अभिन्न है, क्योंकि ये सभी एक ही दिव्य कोटि के हैं। इस वाद्य द्वारा झंकृत ध्वनि कभी भौतिक नहीं हो सकती, अतएव नारद के इस वाद्य द्वारा प्रसारित महिमा तथा लीलाएँ भी दिव्य हैं, उनमें भौतिकता का जरा भी उन्माद नहीं है। सप्त स्वर ष (षडज), ऋ (ऋषभ), गा (गान्धार), म (मध्यम), प (पञ्चम), ध (धैवत) तथा नि (निषाद) भी दिव्य हैं और विशेष रूप से दिव्य गीतों के लिए हैं। भगवान् के शुद्ध भक्त के रूप में श्री नारददेव भगवान् द्वारा प्रदत्त इस वीणा के ऋण से सदैव उऋण होते हैं, क्योंकि वे निरन्तर उनके दिव्य यश का गायन करते रहते हैं और इस प्रकार अपने उच्च पद पर अच्युत हैं। भौतिक जगत के स्वरूप सिद्ध व्यक्ति को भी श्रील नारद मुनि के पद चिह्नों का अनुसरण करते हुए सप्तस्वरों अर्थात् ष, ऋ, गा, म, आदि का व्यवहार भगवान् की सेवा में उनकी महिमा के निरन्तर गायन द्वारा करना चाहिए, जैसी कि भगवद्गीता में पुष्टि हुई है।
 
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