एतत्—यह; हि—निश्चय ही; आतुर-चित्तानाम्—उन लोगों का जिनके चित्त सदैव चिन्ताओं से भरे रहते हैं; मात्रा— विषय वस्तुएँ; स्पर्श—इन्द्रियाँ; इच्छया—इच्छाओं के द्वारा; मुहु:—सदैव; भव-सिन्धु—अज्ञान रूपी सागर; प्लव:— नाव; दृष्ट:—अनुभव की गई; हरि-चर्य—भगवान् हरि के कार्यकलापों का; अनुवर्णनम्—निरन्तर गायन ।.
अनुवाद
यह मेरा निजी अनुभव है कि जो लोग विषय-वस्तुओं से सम्पर्क की इच्छा रखने के कारण सदैव चिन्ताग्रस्त रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य लीलाओं के निरन्तर कीर्तन रूपी सर्वाधिक उपयुक्त नौका पर चढक़र अज्ञान रूपी सागर को पार कर सकते हैं।
तात्पर्य
जीव का लक्षण यह है कि वह थोड़े समय के लिए भी मौन नहीं रह सकता। वह कुछ न कुछ करता रहता है, कुछ न कुछ सोचता या बोलता रहता है। सामान्य रूप से भौतिकतावादी लोग ऐसे विषयों के बारे में सोचते तथा बातें करते हैं, जो उनकी इन्द्रियों को तुष्ट करने वाले होते हैं। चूँकि ये सारी बातें बहिरंगा शक्ति के प्रभाववश की जाती हैं, अतएव इन्द्रियों के कार्यों से उन्हें कोई सन्तुष्टि नहीं मिल पाती। उल्टे वे चिन्ताओं से पूर्ण होते जाते हैं। यह माया कहलाती है जिसका अर्थ है, “वह जो नहीं है”। ऐसी वस्तु जो उन्हें तुष्टि प्रदान नहीं कर पाती, उसे तुष्टि की वस्तु मान लिया जाता है। अतएव नारद मुनि अपने निजी अनुभव से बताते हैं कि इन्द्रियतृप्ति में निरत ऐसे हताश लोगों की तुष्टि भगवान् की लीलाओं के निरन्तर कीर्तन से हो सकती है। बात इतनी-सी है कि विषयवस्तु को केवल बदल देना होता है।ंन तो कोई किसी जीव को सोचने से रोक सकता है, न अनुभव करने, चाहने या कार्य करने से रोक सकता है। किन्तु यदि कोई वास्तविक सुख चाहता है, तो उसे केवल विषयवस्तु बदलनी होगी। उसे चाहिए कि वह मर्त्य मनुष्य की राजनीति की चर्चा न चलाकर स्वयं भगवान् द्वारा संचालित राजनीति की चर्चा चलाए। वह सिनेमा पात्रों के कार्यकलापों में रुचि न दिखाकर भगवान् की उनके नित्य पार्षदों, यथा गोपियों तथा लक्ष्मीयों, के साथ की लीलाओं की ओर ध्यान दे। सर्वशक्तिमान भगवान् अपनी अहैतुकी कृपावश पृथ्वी पर अवतरित होते हैं और संसारी पुरुषों की ही भाँति अपने कार्य दिखलाते हैं, लेकिन साथ ही, वे होते अद्वितीय हैं, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं। वे समस्त बद्धजीवों के लाभ के लिए ऐसा करते हैं, जिससे वे लोग अध्यात्म की ओर ध्यान दें। ऐसा करने से बद्धजीव क्रमश: दिव्य पद पर उन्नत होता है और समस्त कष्टों के स्रोत इस भवसागर को पार करता है। श्री नारद मुनि-जैसे प्रामाणिक अधिकारी ने अपने निजी अनुभव से ऐसा कहा है। हमें भी ऐसा ही अनुभव हो सकता है, यदि हम भगवान् के प्रियतम भक्त, इस ऋषि के चरणचिह्नों का अनुसरण करने लगें।
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