यम-आदिभि:—आत्मसंयम का अभ्यास करने की विधि के द्वारा; योग-पथै:—योग (दैवी अवस्था प्राप्त करने के लिए यौगिक शारीरिक शक्ति) पद्धति के द्वारा; काम—इन्द्रियतुष्टि की इच्छा; लोभ—इन्द्रियों की तुष्टि के लिए लालच; हत:—समाप्त; मुहु:—सदैव; मुकुन्द—भगवान्; सेवया—की सेवा द्वारा; यद्वत्—जिस रूप में; तथा—उसी प्रकार; आत्मा—आत्मा; अद्धा—समस्त व्यावहारिक कार्यों के लिए; न—नहीं; शाम्यति—तुष्ट हो ।.
अनुवाद
यह सत्य है कि योगपद्धति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के अभ्यास से मनुष्य को काम तथा लोभ की चिन्ताओं से राहत मिल जाएगी, किन्तु इससे आत्मा को सन्तोष प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि यह सन्तोष भगवान् की भक्तिमय सेवा से ही प्राप्त किया जा सकता है।
तात्पर्य
योग का लक्ष्य है इन्द्रियों का संयम। आसन, विचार, भाव, इच्छा, एकाग्रता, ध्यान तथा अन्त में अध्यात्म में लीन हो जाने की यौगिक प्रक्रिया का अभ्यास करके मनुष्य इन्द्रियों को वश में कर सकता हैं। इन्द्रियाँ विषैले सर्पों के तुल्य हैं और योग पद्धति उन्हें केवल वश में करने के लिए होती है। इसके विपरीत, नारद मुनि इन्द्रियों के निरोध की दूसरी विधि बताते हैं जो भगवान् मुकुन्द की दिव्य प्रेमाभक्ति है। वे अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि भगवान् की भक्तिमय सेवा इन्द्रियों को वश में करने की कृत्रिम विधि की तुलना में अधिक व्यावहारिक तथा प्रभावशाली है। भगवान् मुकुन्द की सेवा करने से इन्द्रियाँ दिव्य रूप से सेवा में लगी रहती हैं। इस प्रकार उनके इन्द्रियतुष्टि में लगने का अवसर ही नहीं रह जाता। इन्द्रियों को कुछ काम चाहिए। कृत्रिम ढंग से उन्हें रोकना कोई रोकना नहीं है, क्योंकि ज्योंही भोग का कोई अवसर आता है त्योंही साँप जैसी इन्द्रियाँ अवश्य उसका लाभ उठाना चाहती हैं। इतिहास में ऐसे अनेक दृष्टान्त मिलते हैं—यथा विश्वामित्र मुनि का मेनका के सौंदर्य पर मोहित होना। इसी तरह सुन्दर वस्त्रों से सज्जित होकर माया आधी रात के समय ठाकुर हरिदास को मोहने आई, किन्तु वह इस भक्त को अपने जाल में फँसा न सकी।
भाव यह है कि भगवान् की भक्तिमय सेवा के बिना न तो योग पद्धति, न ही शुष्क चिन्तन कभी सफल हो सकता है। आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है सकाम कर्म ध्यानयोग, या शुष्क चिन्तन से रंजित हुए बिना भगवान् की शुद्ध भक्ति करना। ऐसी शुद्ध भक्तिमय सेवा दिव्य होती है और योग तथा ज्ञान की पद्धतियाँ ऐसी विधि से गौण होती हैं। जब दिव्य भक्ति के साथ किसी अन्य गौण पद्धति को मिला दिया जाता है, तो वह दिव्य नहीं रह जाती, अपितु मिश्रित भक्ति कहलाती है। श्रीमद्भागवत के रचयिता श्रील व्यासदेव आगे चलकर क्रमश: इन दिव्य साक्षात्कार की विभिन्न पद्धतियों का विस्तार करेंगे।
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