हे व्यासदेव, तुम समस्त पापों से मुक्त हो। इस तरह, जैसा तुमने पूछा, उसी के अनुसार मैंने अपने जन्म तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए किये गये कर्मों की व्याख्या की है। यह तुम्हारे आत्म-संतोष के लिए भी लाभप्रद होगा।
तात्पर्य
व्यासदेव की जिज्ञासाओं की तुष्टि के लिए, अध्यात्म अवस्था से प्रारम्भ करके, भक्तिमय कार्य की पद्धति की सम्यक् विवेचना की गई है। नारद ने बताया है कि किस प्रकार दिव्य संगति के द्वारा भक्ति रूपी बीज बोया गया और वह किस तरह मुनियों से श्रवण करने पर धीरे-धीरे बढ़ता गया। ऐसे श्रवण से सांसारिकता से विरक्ति उत्पन्न होती है, यहाँ तक कि एक छोटे-से बालक ने अपनी एकमात्र संरक्षिका माता की मृत्यु के समाचार को ईश्वर का आशीर्वाद मान कर स्वीकार किया और वह तुरन्त ही भगवान् की खोज में निकल पड़ा। फिर भगवान् से साक्षात्कार करने की उसकी प्रबल इच्छा स्वीकार हुई, यद्यपि सांसारिक नेत्रों से भगवान् को देख पाना किसी के लिए सम्भव नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि शुद्ध दिव्य सेवा करके मनुष्य किस प्रकार संचित कर्मों के फल से छुटकारा पा सकता है और किस प्रकार उन्होंने इस भौतिक शरीर को ही आध्यात्मिक शरीर में परिणत किया। केवल आध्यात्मिक शरीर को ही भगवान् के आध्यात्मिक परिमण्डल में प्रवेश मिलता है और केवल शुद्ध भक्त ही भगवद्धाम में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है। दिव्य अनुभूति के सारे रहस्यों का अनुभव नारद जी स्वयं करते हैं, अतएव ऐसे प्राधिकारी व्यक्ति से सुनकर ही भक्तिमय जीवन के फलों का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, जिनका सही-सही उद्धरण वेदों के मूल पाठ में भी मुश्किल से ही मिल पाता है। वेदों तथा उपनिषदों में इन सारी बातों के विषय में अप्रत्यक्ष संकेत हैं। उनमें प्रत्यक्ष रीति से कुछ भी विवेचित नहीं मिलता। अतएव श्रीमद्भागवत समस्त वैदिक साहित्य रूपी वृक्ष का परिपक्व फल है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.