श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  1.6.38 
अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वन: ।
गायन्माद्यन्निदं तन्‍त्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—धन्य हो; देवर्षि:—देवताओं के ऋषि; धन्य:—सफल हो; अयम् यत्—जो कोई; कीर्तिम्—यश; शार्ङ्ग धन्वन:—भगवान् का; गायन्—गान करते हुए; माद्यन्—आनन्द लूटते हुए; इदम्—इस; तन्त्र्या—वाद्ययंत्र के सहारे; रमयति—जीवन दान देता है; आतुरम्—विपन्न; जगत्—संसार ।.
 
अनुवाद
 
 देवर्षि नारद धन्य हैं, क्योंकि वे भगवान् की लीलाओं का यशोगान करते हैं और ऐसा करके वे स्वयं तो आनन्द लूटते ही हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त संतप्त जीवों को भी अभिप्रेरणा प्रदान करते हैं।
 
तात्पर्य
 श्री नारद मुनि अपनी वीणा भगवान् की दिव्य लीलाओं के यशोगान करने तथा ब्रह्माण्ड के समस्त दुखी जीवों को सहारा दिलाने के लिए बजाते हैं। इस ब्रह्माण्ड में कोई भी सुखी नहीं है और जिसे हम सुख के रूप में अनुभव करते हैं, वह माया का मोह है। भगवान् की माया इतनी प्रबल है कि मलभक्षी शूकर तक अपने को सुखी अनुभव करता है। इस भौतिक जगत के भीतर वास्तविक रूप में कोई भी सुखी नहीं हो सकता। श्रील नारद मुनि, दुखी वासियों को अभिप्रेरणा प्रदान करने के लिए सर्वत्र विचरण करते रहते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य उन्हें भगवान् के धाम वापस ले जाना है। यही उद्देश्य उन सारे असली भगवद्भक्तों का है, जो इस महर्षि के पदचिह्नों पर चलते हैं।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अन्तर्गत “नारद तथा व्यासदेव का संवाद” नामक छठे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥