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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  1.6.6 
एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।
मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्‍नेहानुबन्धनम् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
एक-आत्मजा—केवल एक सन्तान वाली; मे—मेरी; जननी—माता ने; योषित्—स्त्री जाति; मूढा—मूर्ख; —तथा; किङ्करी—दासी; मयि—मुझ; आत्मजे—सन्तान में; अनन्य-गतौ—जिसकी रक्षा का कोई अन्य साधन न हो; चक्रे— किया; स्नेह-अनुबन्धनम्—प्रेम के बन्धन में बँधा ।.
 
अनुवाद
 
 मैं अपनी माता का इकलौता पुत्र था। वह न केवल भोलीभाली स्त्री थी, अपितु दासी भी थी। चूँकि मैं उसकी एकमात्र सन्तान था, अत: उसकी रक्षा का कोई अन्य साधन न था, अतएव उसने मुझे अपने स्नेह-पाश में बाँध रखा था।
 
 
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