श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.7.10 
सूत उवाच
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरि: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; आत्मारामा:—जिन्हें आत्मा में सुख मिलता है वे; च—भी; मुनय:—मुनिगण; निर्ग्रन्था:—समस्त बन्धनों से मुक्त; अपि—होने पर भी; उरुक्रमे—महान् साहसिक में; कुर्वन्ति—करते हैं; अहैतुकीम्— अनन्य, अमिश्रित; भक्तिम्—भक्ति; इत्थम्-भूत—ऐसे आश्चर्यमय; गुण:—गुण; हरि:—हरि के ।.
 
अनुवाद
 
 जो आत्मा में आनन्द लेते हैं, ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म-साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने प्रमुख भक्त श्रील सनातन गोस्वामी के समक्ष इस आत्माराम श्लोक की व्याख्या अत्यन्त विशद रूप में की। उन्होंने इस श्लोक में ग्यारह तत्त्वों का संकेत किया है। ये हैं (१) आत्माराम, (२) मुनय:, (३) निर्ग्रन्थ, (४) अपि, (५) च, (६) उरुक्रम, (७) कुर्वन्ति, (८) अहैतुकीम्, (९) भक्तिम्, (१०) इत्थम्-भूत-गुण: तथा (११) हरि:। विश्व-प्रकाश संस्कृत कोश के अनुसार, आत्माराम शब्द के सात पर्याय हैं जो इस प्रकार हैं (१) ब्रह्म (परम सत्य), (२) शरीर, (३) मन, (४) प्रयत्न, (५) सहिष्णुता, (६) बुद्धि तथा (७) (व्यक्तिगत) आदतें।

मुनय: शब्द का प्रयोग इन अर्थों में होता है—(१) जो विचारवान हैं, (२) जो गम्भीर तथा शान्त हैं (३) तपस्वी, (४) जो हठ़ है, (५) परिव्राजक, (६) ऋषि तथा (७) साध-सन्त। निर्ग्रन्थ शब्द से निम्नलिखित भावों का वहन होता है (१) जो अविद्या से मुक्त है, (२) जिसका शास्त्रीय आदेशों से कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिसे नीति ग्रंन्थो, वेदों, दर्शन, मनोविज्ञान तथा तत्त्वज्ञान आदि में वर्णित विधि-विधानों के पालन करने की विवशता नहीं है (दूसरे शब्दों में मूर्ख, अशिक्षित, बदमाश आदि जिन्हें विधि-विधानों से सम्बन्ध नहीं होता), (३) पूँजीपति तथा (४) निर्धन भी।

शब्दकोश के अनुसार, नि उपसर्ग का प्रयोग (१) निश्चितता, (२) गणना, (३) निर्माण तथा (४) निषेध के लिए होता है और ग्रंथ शब्द धन, पुस्तक, शब्दकोश आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

उरुक्रम शब्द का अर्थ है, “वह जिसके कार्यकलाप महिमामण्डित हैं।” क्रम का अर्थ है, पग या कदम। उरुक्रम शब्द विशेष रूप से भगवान् के वामन अवतार का सूचक है, जिन्होंने अपने अमाप्य पगों से सारे ब्रह्माण्ड को नाप लिया। भगवान् विष्णु शक्तिमान हैं और उनके कार्यकलाप इतने महिमामय हैं कि उन्होंने अपनी अन्तंरगा शक्ति से आध्यात्मिक जगत की तथा बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगत की सृष्टि की है। अपने सर्वव्यापक पक्ष के कारण वे परम सत्य के रूप में सर्वत्र विद्यमान हैं और अपने वैयक्तिक रूप में वे सदैव अपने गोलोक वृन्दावन धाम में उपस्थित रहते हैं, जहाँ पर वे अत्यन्त विविधतामयी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं। उनके कार्यकलापों की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती, अतएव उरुक्रम शब्द उन्हीं को शोभा देता है।

संस्कृत क्रिया-व्यवस्था के अनुसार, कुर्वन्ति का अर्थ है किसी अन्य के लिए काम करना। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्माराम भगवान् की भक्तिमय सेवा अपने स्वार्थवश नहीं, अपितु भगवान् उरुक्रम की प्रसन्नता के लिए करते हैं।

हेतु का अर्थ है “कारण।” मनुष्य की इन्द्रियतुष्टि के अनेक कारण हो सकते हैं और उनका वर्गीकरण भौतिक भोग, योग शक्ति तथा मुक्ति के रूप में किया जा सकता है जिसकी कामना सामान्य रूप से सारे प्रगतिशील व्यक्ति करते हैं। जहाँ तक भौतिक भोगों का प्रश्न है, भोग तो अनेक हैं और भौतिकतावादी उनकी संख्या और भी बढ़ाते रहने के लिए उत्सुक रहते हैं, क्योंकि वे माया के वश में होते हैं। भौतिक भोगों का न तो कोई अन्त है, न ही कोई व्यक्ति भौतिक जगत में इन सारे भोगों को पा सकता है। जहाँ तक योग शक्तियों का प्रश्न है, उनकी संख्या आठ है (जैसे कि अपने रूप को अत्यन्त छोटा बना देना, भाररहित बनना, इच्छानुसार की वस्तु प्राप्त करना, भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताना, अन्य जीवों को नियंत्रित करना, ग्रह की रचना करना इत्यादि)। इन योग शक्तियों का उल्लेख भागवत में हुआ है। मोक्ष के पाँच प्रकार हैं।

अत: अनन्य भक्ति का अर्थ है उपुर्यक्त व्यक्तिगत लाभों की आकांक्षा से रहित होकर भगवान् की सेवा करना। सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्रकार के व्यक्तिगत लाभों से मुक्त ऐसे अनन्य भक्तों द्वारा पूर्ण रूप से प्रसन्न हो सकते हैं।

भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा विभिन्न अवस्थाओं से होकर प्रगति करती है। भौतिक क्षेत्र में भक्ति के अभ्यास के ८१ विभिन्न गुण हैं और इन सबके ऊपर भक्ति का दिव्य अभ्यास होता है, जो एक है और साधन-भक्ति कहलाता है। जब साधन-भक्ति का अनन्य अभ्यास भगवान् के दिव्य प्रेम में परिपक्व होने लगता है, तो भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति नौ अवस्थाओं में क्रमश: विकसित होने लगती है। ये हैं—आसक्ति, प्रेम, स्नेह, अनुभाव, प्रणय, राग, अनुराग, भाव तथा वियोग (विरहानुभूति)।

निष्क्रिय भक्त की आसक्ति भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम की अवस्था तक बढ़ती है। सक्रिय सेवक की आसक्ति राग अवस्था तक और सखा-भक्त की अनुभाव अवस्था तक बढ़ती है। यही हाल मातृ-पितृ भक्तों का है। माधुर्य प्रेम में भक्तगण विरहावस्था तक भाव को बढ़ाते हैं। भगवान् की अनन्य भक्ति के ये कुछ लक्षण हैं।

हरि-भक्ति-सुधोदय के अनुसार, इत्थम्-भूत शब्द का आशय “पूर्ण आनन्द” है। निराकार ब्रह्म की अनुभूति से प्राप्त दिव्य आनन्द की तुलना बछड़े के गो खुर से बने गड्ढ़े में आने वाले रंचमात्र जल से की जा सकती है। भगवान् के दर्शन रूपी आनन्द के सागर की तुलना में यह तुच्छ है। भगवान् श्रीकृष्ण का व्यक्तिगत रूप इतना आकर्षक है कि यह अपने में समस्त आकर्षण, समस्त आनन्द तथा समस्त रसों को सँजोये है। ये आकर्षण इतने प्रबल हैं कि कोई भी व्यक्ति इनका विनिमय भौतिक भोग, योगशक्ति तथा मुक्ति से नहीं करना चाहता। इस कथन के समर्थन के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है, किन्तु मनुष्य अपने स्वभाव से ही भगवान् कृष्ण के गुणों के प्रति आकृष्ट होता है। हमें यह भलीभाँति जान लेना चाहिए कि भगवान् के गुणों का लौकिक गुणों से कोई सरोकार नहीं होता। वे सभी आनन्द, ज्ञान तथा शाश्वतता से परिपूर्ण होते हैं। भगवान् के गुण असंख्य हैं। कोई किसी गुण से आकृष्ट होता है तो दूसरा किसी अन्य गुण से।

सनक, सनातन, सनन्द तथा सनत्कुमार नामक चारों ब्रह्मचारी भक्त भगवान् के चरणकमलों पर अर्पित फूलों की सुगन्ध तथा चन्दनयुक्त तुलसी दल से आकृष्ट हुए थे। इसी प्रकार शुकदेव गोस्वामी भगवान् की दिव्य लीलाओं से आकृष्ट हुए थे। शुकदेव गोस्वामी पहले से मुक्त अवस्था को प्राप्त थे, फिर भी वे भगवान् की लीलाओं से आकृष्ट हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् की लीलाओं की गुणवत्ता को भौतिक संसर्ग से कुछ लेना-देना नहीं होता। इसी प्रकार तरुणी गोप कुमारियाँ भगवान् के शारीरिक लक्षणों से आकृष्ट हुईं और रुक्मिणी भगवान् की महिमा का श्रवण करके आकृष्ट हुई। भगवान् कृष्ण भाग्य की देवी (लक्ष्मी) के भी मन को आकृष्ट करने वाले हैं। विशेष परिस्थितियों में वे समस्त तरुणियों के मन को मोहित करते हैं। वे वयस्क महिलाओं के मनों को मातृ-स्नेह के रूप में आकर्षित करते हैं। वे पुरुष के मन को सेवक तथा सखा-भाव में आकृष्ट करते हैं।

हरि शब्द के अनेक अर्थ हैं, लेकिन इसका मुख्य आशय यह है कि भगवान् सारी अशुभ वस्तुओं को नष्ट करते हैं और भक्त के मन को शुद्ध दिव्य प्रेम प्रदान करके हर लेते हैं। घोर कष्ट में होने पर भगवान् का स्मरण करने से मनुष्य के सारे दुख तथा चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। भगवान् शुद्ध भक्त के भक्ति मार्ग के सारे अवरोधों को क्रमश: दूर कर देते हैं और श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति का फल प्रकट होने लगता है।

भगवान् अपने व्यक्तिगत रूप तथा दिव्य लक्षणों से शुद्ध भक्त के सारे मनोवैज्ञानिक कार्यकलापों को आकृष्ट करते हैं। ऐसी होती है कृष्ण की आकर्षण शक्ति। यह आकर्षण इतना प्रबल होता है कि शुद्ध भक्त धर्म के चारों सिद्धान्तों में से एक की भी लालसा नहीं करता। ये हैं भगवान् के दिव्य लक्षणों के आकर्षक गुण। इनके साथ अपि तथा च शब्द मिलाने से आशय में असीम वृद्धि हुई है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार, अपि शब्द के सात पर्याय हैं।

अत: इस श्लोक के प्रत्येक शब्द की व्याख्या करने पर देखा जा सकता है कि शुद्ध भक्त को आकर्षित करने के लिए भगवान् कृष्ण में असंख्य दिव्य गुण पाये जाते हैं।

 
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