ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, श्रील शुकदेव गोस्वामी अपनी माता के गर्भ में भी मुक्तात्मा ही थे। श्रील व्यासदेव जानते थे कि यह बालक जन्म लेने के बाद कभी घर में नहीं रहेगा। अतएव उन्होंने बालक को भागवत की रूपरेखा सुनाई, जिससे वह भगवान् की दिव्य लीलाओं में अनुरक्त होता रहे। जन्म लेने के बाद यह बालक यथार्थ में श्लोकों का पाठ करके भागवत की विषय वस्तु में और भी अधिक शिक्षित बन गया। भाव यह है कि सामान्य रूप से मुक्त पुरुष अद्वैतवादी दृष्टिकोण के साथ परम ब्रह्म से एकाकार होने के उद्देश्य से उनके निराकार ब्रह्म के आयाम के प्रति आसक्त होते हैं। लेकिन व्यासदेव जैसे शुद्ध भक्तों की संगति से मुक्त पुरुष भी भगवान् के दिव्य गुणों के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। श्री नारद की कृपा से श्रील व्यासदेव श्रीमद्भागवत महाकाव्य का वर्णन कर सके और व्यासदेव के अनुग्रह से श्रील शुकदेव गोस्वामी उसके आशय को ग्रहण कर सके। भगवान् के दिव्य गुण इतने आकर्षक हैं कि श्रील शुकदेव गोस्वामी निराकार ब्रह्म में लीन न होकर, उससे विरक्त हो गये और उन्होंने भगवान् की निजी लीलाओं को ग्रहण कर लिया।
व्यावहारिक रूप से शुकदेव गोस्वामी अपने मन में यह सोचते हुए परम ब्रह्म की निराकार धारणा से विलग हो गए कि उन्होंने अपना इतना समय परमेश्वर के निराकार उपाधि के पीछे व्यर्थ ही गवाँ दिया। दूसरे शब्दों में, उन्होंने निराकार ब्रह्म की तुलना में भगवान् के सगुण रूप से अधिक दिव्य आनन्द की अनुभूति प्राप्त की। और उस समय के बाद वे न केवल विष्णु-जनों अर्थात् भगवद्भक्तों के ही अत्यन्त प्रिय बन गये, अपितु विष्णुजन भी उन्हें अत्यन्त प्रिय हो गये। जो भगवद्भक्त जीवों की व्यक्तिता को नष्ट करना नहीं चाहते और जो भगवान् के निजी सेवक बनना चाहते हैं, वे निर्विशेषवादियों को ज्यादा पसन्द नहीं करते और इसी प्रकार, परमेश्वर से एकाकार होने के इच्छुक निर्विशेषवादी भगवद्भक्तों का मूल्यांकन कर पाने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार अनन्त काल से, ये दोनों दिव्य तीर्थयात्री कभी-कभी प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, इनमें से हर एक अपनी साकार तथा निराकार चरम अनुभूति के कारण, अपने को दूसरे से पृथक् रखना चाहता है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि श्रील शुकदेव गोस्वामी भी भक्तों को नहीं चाहते थे। लेकिन चूँकि वे स्वयं एक प्रगाढ़ भक्त बन गये थे, अतएव वे सदैव विष्णुजनों की संगति करना चाहते थे और विष्णुजन भी उनकी संगति की कामना करते थे, क्योंकि वे व्यक्तिगत भागवत बन चुके थे। इस प्रकार, पिता तथा पुत्र दोनों ही ब्रह्म के दिव्य ज्ञान से अवगत थे और बाद में वे दोनों परमेश्वर के साकार रूप में अनुरक्त हो गये। इस प्रकार इस श्लोक से इस प्रश्न का भी उत्तर मिल जाता है कि शुकदेव गोस्वामी किस प्रकार भागवत की कथा के प्रति आकृष्ट हुए थे।