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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  1.7.2 
सूत उवाच
ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रम: पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धन: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—श्री सूत ने कहा; ब्रह्म-नद्याम्—वेदों, ब्राह्मणों, सन्तों तथा भगवान् से घनिष्ठ रूप से: सम्बन्धित नदी के तट पर; सरस्वत्याम्—सरस्वती के; आश्रम:—ध्यान के लिए कुटी; पश्चिमे—पश्चिमी; तटे—तट पर; शम्याप्रास:—शम्याप्रास नामक स्थान; इति—इस प्रकार; प्रोक्त:—कहलाने वाला; ऋषीणाम्—ऋषियों का; सत्र-वर्धन:—कार्यों को प्रोत्साहित करने वाला ।.
 
अनुवाद
 
 श्री सूत ने कहा : वेदों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर शम्याप्रास नामक स्थान पर एक आश्रम है, जो ऋषियों के दिव्य कार्यकलापों को संवर्धित करने वाला है।
 
तात्पर्य
 ज्ञान के आध्यात्मिक विकास के लिए उपयुक्त स्थान तथा वातावरण की नितान्त आवश्यकता होती है। सरस्वती नदी के पश्चिमी तट का स्थान इस कार्य के लिए विशेष उपयुक्त है और वहीं पर, शम्याप्रास में, व्यासदेव का आश्रम है। श्रील व्यासदेव गृहस्थ थे तो भी उनका निवासस्थान आश्रम कहलाता है। आश्रम वह स्थान है जहाँ आध्यात्मिक कार्यकलाप सर्वोपरि होता हैं, फिर चाहे वह स्थान किसी गृहस्थ का हो या तपस्वी का। सम्पूर्ण वर्णाश्रम पद्धति इस प्रकार नियोजित है कि जीवन की प्रत्येक अवस्था आश्रम कहलाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन सबों में आध्यात्मिक संस्कृति एक सामान्य लक्षण है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी सारे एक ही जीवन-लक्ष्य, अर्थात् परमेश्वर के साक्षात्कार से सम्बन्धित हैं। अतएव जहाँ तक आध्यात्मिक संस्कृति की बात है, इनमें से कोई भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अन्तर तो केवल वैराग्य के आधार पर औपचारिकता का होता है। संन्यासी अपने व्यावहारिक वैराग्य के बल पर ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं।
 
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