श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  1.7.24 
स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतस: ।
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह दिव्यता; एव—निश्चय ही; जीव-लोकस्य—बद्धजीवों का; माया-मोहित—माया द्वारा मोहित; चेतस:—हृदय से; विधत्से—सम्पन्न करते हैं; स्वेन—अपने; वीर्येण—प्रभाव से; श्रेय:—परम कल्याण; धर्म-आदि—मोक्ष के चार सिद्धान्त; लक्षणम्—लक्षण ।.
 
अनुवाद
 
 और, यद्यपि आप भौतिक शक्ति (माया) के कार्यक्षेत्र से परे हैं, फिर भी आप बद्धजीवों के परम कल्याण के लिए धर्म इत्यादि से के चारों सिद्धान्तों का पालन करते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी कृपा से, इस दृश्य जगत में प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहकर अवतरित होते हैं। वे शाश्वत रूप से भौतिक जगत से परे हैं। वे अपनी अहैतुकी कृपावश ही माया द्वारा मोहित पतित जीवों के उद्धार हेतु अवतरित होते हैं। ये जीव माया द्वारा दबोचे जाते हैं और झूठे बहानों के झाँसे से उसका भोग करना चाहते हैं, यद्यपि सच्चाई तो यह है कि जीव भोग करने में असमर्थ है। वह तो भगवान् का नित्य दास है और जब वह अपनी इस स्थिति को भूल जाता है, तो वह भौतिक जगत का भोग करने का सोचता है, किन्तु वास्तव में वह भ्रम में होता है। भगवान् इसी झूठी भोग-धारणा को नष्ट करने के लिए हैं और बद्धजीवों का उद्धार करके उन्हें अपने धाम में ले जाने के लिए अवतरित होते हैं। पतितात्माओं के लिए भगवान् का यही सर्व करुणामय स्वभाव है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥