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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  1.7.25 
तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया ।
स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
तथा—इस प्रकार; अयम्—यह; —तथा; अवतार:—अवतार; ते—आपका; भुव:—भौतिक जगत का; भार—बोझ; जिहीर्षया—दूर करने के लिए; स्वानाम्—मित्रों का; च अनन्य-भावानाम्—तथा अनन्य भक्तों का; अनुध्यानाय— बारम्बार स्मरण करने के लिए; —तथा; असकृत्—पूर्ण रूप से प्रसन्न ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार आप संसार का भार हटाने तथा अपने मित्रों तथा विशेषकर आपके ध्यान में लीन रहने वाले आपके अनन्य भक्तों को लाभ पहुँचाने के लिए अवतरित होते हैं।
 
तात्पर्य
 ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् अपने भक्तों का पक्षपात करते हैं। सभी जीव भगवान् से सम्बन्धित हैं। वे सबों के लिए समान हैं, फिर भी वे अपने जनों तथा भक्तों के प्रति विशेष अनुरक्त रहते हैं। भगवान् सबों के पिता हैं। उनका पिता कोई नहीं हो सकता और न कोई उनका पुत्र बन सकता है। उनके भक्त ही उनके इष्ट-मित्र तथा उनके परिजन हैं। यह उनकी दिव्य लीला है। इसका संसारी सम्बन्धों, पितृत्व या अन्य किसी से कोई प्रयोजन नहीं होता। जैसाकि ऊपर कहा गया है, भगवान् प्रकृति के गुणों से ऊपर हैं, अतएव भक्ति में उनके इष्ट-मित्र तथा सम्बन्धियों में संसारी रिश्ते जैसी कोई चीज नहीं है।
 
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