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श्लोक |
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्म्यहम् ।
सर्वतोमुखमायाति तेज: परमदारुणम् ॥ २६ ॥ |
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शब्दार्थ |
किम्—क्या है; इदम्—यह; स्वित्—आता है; कुत:—कहाँ से; वा इति—चाहे जो हो; देव-देव—हे देवों के देव; न— नहीं; वेद्मि—जानता हूँ; अहम्—मैं; सर्वत:—चारों ओर; मुखम्—दिशाएँ; आयाति—आता है; तेज:—तेज; परम— अत्यधिक; दारुणम्—घातक ।. |
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अनुवाद |
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हे देवाधिदेव, चारों ओर फैलने वाला यह घातक तेज कैसा है? यह कहाँ से आ रहा है? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ। |
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तात्पर्य |
जो भी वस्तु भगवान् के समक्ष प्रस्तुत की जाय, उसे सादर प्रार्थनापूर्वक करना चाहिए। यही मानक विधि है और |
अर्जुन ने भगवान् के अन्तरंगा सखा होते हुए भी इस विधि का पालन सामान्य जनों को सूचित करने के लिए किया। |
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