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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.7.26 
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्‍म्यहम् ।
सर्वतोमुखमायाति तेज: परमदारुणम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
किम्—क्या है; इदम्—यह; स्वित्—आता है; कुत:—कहाँ से; वा इति—चाहे जो हो; देव-देव—हे देवों के देव; — नहीं; वेद्मि—जानता हूँ; अहम्—मैं; सर्वत:—चारों ओर; मुखम्—दिशाएँ; आयाति—आता है; तेज:—तेज; परम— अत्यधिक; दारुणम्—घातक ।.
 
अनुवाद
 
 हे देवाधिदेव, चारों ओर फैलने वाला यह घातक तेज कैसा है? यह कहाँ से आ रहा है? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ।
 
तात्पर्य
 जो भी वस्तु भगवान् के समक्ष प्रस्तुत की जाय, उसे सादर प्रार्थनापूर्वक करना चाहिए। यही मानक विधि है और अर्जुन ने भगवान् के अन्तरंगा सखा होते हुए भी इस विधि का पालन सामान्य जनों को सूचित करने के लिए किया।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥