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श्लोक 1.7.3  |
तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मन: स्वयम् ॥ ३ ॥ |
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शब्दार्थ |
तस्मिन्—उस; स्वे—अपनी; आश्रमे—कुटिया में; व्यास:—व्यासदेव; बदरी—बेर; षण्ड—वृक्ष; मण्डिते—से घिरा; आसीन:—बैठे हुए; अप: उपस्पृश्य—जल का स्पर्श करके; प्रणिदध्यौ—एकाग्र किया; मन:—मन को; स्वयम्—अपने आप में ।. |
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अनुवाद |
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उस स्थान पर बेरी के वृक्षों से घिरे हुए अपने आश्रम में, श्रील वेदव्यास शुद्धि के लिए जल का स्पर्श करने के बाद ध्यान लगाने के लिए बैठ गये। |
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तात्पर्य |
अपने गुरु श्रील नारद मुनि के आदेशानुसार व्यासदेव ने ध्यान के उस दिव्य स्थान में अपने मन को एकाग्र किया। |
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