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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.7.32 
प्रजोपद्रवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं च वासुदेवस्य सञ्जहारार्जुनो द्वयम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
प्रजा—सामान्य जन; उपद्रवम्—अव्यवस्था; आलक्ष्य—देखकर; लोक—ग्रहों का; व्यतिकरम्—विनाश; —भी; तम्—उसको; मतम् च—तथा मत को; वासुदेवस्य—वासुदेव या श्रीकृष्ण का; सञ्जहार—शमन किया, निवारण किया; अर्जुन:—अर्जुन ने; द्वयम्—दोनों अस्त्रों का ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार जन सामान्य में फैली हड़बड़ी एवं ग्रहों के आसन्न विनाश को देखकर, अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छानुसार तुरन्त ही दोनों अस्त्रों का निवारण कर दिया।
 
तात्पर्य
 यह मत कि आधुनिक परमाणु बम का विस्फोट संसार का संहार कर सकता है, बचकानी कल्पना है। पहले तो परमाणु ऊर्जा संसार का विनाश करने के लिए पर्याप्त सशक्त नहीं है। दूसरे, यह सब परमेश्वर की परम इच्छा पर निर्भर है, क्योंकि उनकी इच्छा या स्वीकृति के बिना कुछ भी बनाया या बिगाड़ा नहीं जा सकता। यह सोचना भी मूर्खता है कि प्राकृतिक नियम अनन्तिम रुप से शक्तिशाली हैं। भौतिक प्रकृति का नियम भगवान् के निर्देशानुसार कार्य करता है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है। उसमें भगवान् कहते हैं कि प्राकृतिक नियम उनके अधीक्षण में कार्य करते हैं। इस संसार का संहार भगवान् की ही इच्छा से हो सकता है, छोटे-मोटे राजनेताओं की सनक से नहीं। भगवान् श्रीकृष्ण ने इच्छा प्रकट की कि द्रौणि तथा अर्जुन दोनों के द्वारा छोड़े गये अस्त्र लौटा लिए जाँय और अर्जुन ने तुरन्त ही इस आज्ञा का पालन किया। इसी प्रकार, सर्वशक्तिमान भगवान् के अनेक दूत हैं और भगवान् जो चाहते हैं, उसे उनकी इच्छा से ही कोई सम्पन्न कर सकता है।
 
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