शिबिराय—सेना के पड़ाव में; निनीषन्तम्—लाते हुए; रज्ज्वा—रस्सियों से; बद्ध्वा—बँधा हुआ; रिपुम्—शत्रु को; बलात्—बलपूर्वक; प्राह—कहा; अर्जुनम्—अर्जुन से; प्रकुपित:—क्रुद्ध; भगवान्—भगवान् ने; अम्बुज-ईक्षण:— अपने कमल सदृश नेत्रों से देखने वाले ।.
अनुवाद
अश्वत्थामा को बाँध लेने के बाद, अर्जुन उसे सेना के पड़ाव की ओर ले जाना चाह रहा था कि अपने कमलनेत्रों से देखते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रुद्ध अर्जुन से इस प्रकार कहा।
तात्पर्य
यहाँ पर अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण दोनों को क्रुद्ध बताया गया है, लेकिन अर्जुन की आँखें लाल ताँबे के तप्त गोलों के समान थीं, जबकि भगवान् की आँखें कमलवत् थीं। इसका अर्थ यह है कि अर्जुन तथा भगवान् के क्रुद्ध रूप एक-जैसे नहीं हैं। भगवान् दिव्य हैं और किसी भी अवस्था में पूर्ण हैं। उनका क्रोध भौतिक प्रकृति के गुणों के वशीभूत बद्धजीवों के क्रोध जैसा नहीं होता है। चूँकि वे पूर्ण हैं, अतएव उनका क्रोध तथा उनकी प्रसन्नता एक समान हैं। उनका क्रोध प्रकृति के तीनों गुणों में प्रकट नहीं होता। यह अपने भक्तों के हित के लिए उनके मन के झुकाव का प्रतीक मात्र होता है, क्योंकि वही उनकी दिव्य प्रकृति है। अतएव उनके क्रुद्ध होने पर भी क्रोध का पात्र धन्य हो जाता है। वे सभी परिस्थितियों में अपरिवर्तित रहते हैं।
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