मा एनम्—उसके प्रति कभी नहीं; पार्थ—हे अर्जुन; अर्हसि—तुम्हें चाहिए; त्रातुम्—मुक्त करना; ब्रह्म-बन्धुम्—ब्राह्मण के सम्बन्धी को; इमम्—इस; जहि—मार डालो; य:—जो; असौ—उन; अनागस:—दोषरहित; सुप्तान्—सोये हुए; अवधीत्—हत्या की; निशि—रात्रि में; बालकान्—बालकों की ।.
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन, इस ब्रह्म-बन्धु को छोडक़र तुम दया मत दिखलाओ, क्योंकि इसने सोते हुए निर्दोष बालकों का वध किया है।
तात्पर्य
ब्रह्म-बन्धु शब्द महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है, किन्तु ब्राह्मण कहलाने की योग्यता नहीं रखता, उसे ब्राह्मण-बन्धु कहकर संबोधित किया जाता है, न कि ब्राह्मण। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पुत्र स्वत: ही न्यायाधीश नहीं हो जाता, लेकिन न्यायाधीश के पुत्र को न्यायाधीश का रिश्तेदार कहने में कोई हर्ज नहीं है। अत: जिस प्रकार कोई जन्म के द्वारा ही न्यायालय का न्यायाधीश नहीं बन जाता, उसी प्रकार कोई जन्म के आधार पर ही ब्राह्मण नहीं होता, अपितु उसे ब्राह्मण की आवश्यक योग्यताएँ प्राप्त करनी होती हैं। जिस प्रकार न्यायाधीश का पद उसके योग्य व्यक्ति के लिए होता है, उसी प्रकार से ब्राह्मण का पद भी योग्यता से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों का आदेश है कि यदि ब्राह्मण से इतर कुल में भी उत्पन्न हुए पुरुष में ब्राह्मण के सद्गुण रहते हैं, तो उसे ब्राह्मण के रूप में स्वीकार करना होता हैं। इसी प्रकार यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति ब्राह्मण के गुणों से रहित होता है, तो उसे अब्राह्मण या ठीक से कहना चाहें तो ब्राह्मण-बन्धु कहना चाहिए। समस्त वेदों के परम प्रमाण भगवान् श्रीकृष्ण ने ये अन्तर स्वयं बताये हैं और वे इसका कारण अगले श्लोक में बताने वाले हैं।
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