श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  1.7.36 
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
मत्तम्—लापरवाह को; प्रमत्तम्—नशे में रहने वाले को; उन्मत्तम्—पागल को; सुप्तम्—सोए हुए को; बालम्—बालक को; स्त्रियम्—स्त्री को; जडम्—मूर्ख को; प्रपन्नम्—शरणागत को; विरथम्—रथविहीन को; भीतम्—भयभीत को; न—नहीं; रिपुम्—शत्रु को; हन्ति—मारते हैं; धर्म-वित्—धार्मिक नियमों का ज्ञाता ।.
 
अनुवाद
 
 जो मनुष्य धर्म के सिद्धन्तों को जानता है, वह ऐसे शत्रु का वध नहीं करता जो असावधान, नशे में उन्मत्त, पागल, सोया हुआ, डरा हुआ या रथविहीन हो। न ही वह किसी बालक, स्त्री, मूर्ख प्राणी अथवा शरणागत जीव का वध करता है।
 
तात्पर्य
 धर्म के ज्ञाता योद्धा द्वारा कभी ऐसे शत्रु को नहीं मारा जाता, जो प्रतिरोध न करे। पुराने समय में धर्म युद्ध के सिद्धान्तों के आधार पर लड़े जाते थे, किसी इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं। यदि शत्रु प्रमत्त हो, सोया हो इत्यादि जैसाकि ऊपर कहा गया है, तो उसे कभी भी मारना नहीं चाहिए। धर्म युद्ध के ऐसे कुछ नियम हैं। पूर्व-काल में कभी भी स्वार्थी राजनेताओं की सनक के कारण युद्ध की घोषणा नहीं की जाती थी। युद्ध, पापों से रहित धार्मिक नियमों के आधार पर, लड़े जाते थे। धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार की गई हिंसा तथाकथित अहिंसा से कहीं श्रेष्ठतर होती है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥