श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  1.7.37 
स्वप्राणान् य: परप्राणै: प्रपुष्णात्यघृण: खल: ।
तद्वधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यध: पुमान् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
स्व-प्राणान्—अपना जीवन; य:—जो; पर-प्राणै:—दूसरों के जीवन के मूल्य पर; प्रपुष्णाति—ठीक से पलता है; अघृण:—निर्लज्ज; खल:—दुष्ट; तत्-वध:—उसको मारना; तस्य—उसका; हि—निश्चय ही; श्रेय:—श्रेयस्कर; यत्— जिस; दोषात्—दोष से; याति—जाता है; अध:—नीच की ओर; पुमान्—मनुष्य ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसा क्रूर तथा दुष्ट व्यक्ति जो दूसरों के प्राणों की बलि पर पलता है, उसका वध किया जाना उसके लिए ही हितकर है, अन्यथा अपने ही कर्मों से उसकी अधोगति होती है।
 
तात्पर्य
 जो व्यक्ति क्रूरता तथा निर्लज्जतापूर्वक दूसरों के जीवन की बलि पर पलता है, उसके लिए प्राण का बदला प्राण ही उपयुक्त दण्ड है। राजनीतिक नैतिकता का तकाजा है कि क्रूर व्यक्ति को नरक जाने से बचाने के लिए उसे प्राणदण्ड दिया जाय। यदि शासन किसी हत्यारे को प्राणदण्ड देता है, तो अपराधी के लिए यह अच्छा होता है, क्योंकि उसे अगले जन्म में इस हत्या-कर्म के लिए फल भोगना नहीं पड़ेगा। ऐसा प्राणदण्ड उस हत्यारे के लिए न्यूनतम सम्भव दण्ड है और स्मृति शास्त्रों में कहा गया है कि जिन्हें राजा द्वारा प्राण के बदले प्राण के आधार पर दण्डित किया जाता है, वे अपने सारे पापों से मुक्त हो जाते हैं—यहाँ तक कि वे स्वर्गलोक जाने के पात्र भी बन सकते हैं। नागरिक संहिता तथा धार्मिक सिद्धान्तों के महान रचनाकार मनु के अनुसार, पशु के मारने वाले तक को हत्यारा समझना चाहिए, क्योंकि पशुमाँस कभी भी सभ्य मनुष्य का भक्ष्य नहीं होता। सभ्य मनुष्य का मुख्य कर्तव्य तो भगवद्धाम वापस जाने के लिए अपने आप को योग्य बनाना है। उनका कहना है कि पशुओं के वध के पीछे, पापी गिरोहों का नियत षड्यन्त्र रहता है, अतएव वे उसी प्रकार दण्डनीय हैं जिस प्रकार कि षड्यन्त्रकारी गिरोह जो सामूहिक रूप से किसी मनुष्य की हत्या करते हैं। जो पशु वध की आज्ञा देता है, जो पशु वध करता है, जो काटे गये पशुओं को बेचता है, जो पशु मांस पकाता है, जो ऐसे भक्ष्य का वितरण करता है और वह भी, जो ऐसे पकाये भक्ष्य को खाता है, वे सभी हत्यारे हैं और वे सभी प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डनीय हैं। चाहे कोई कितनी ही वैज्ञानिक प्रगति क्यों न कर ले, वह जीव को उत्पन्न नहीं कर सकता; अतएव मनमानी करके किसी जीव का वध करने का किसी को भी अधिकार नहीं हैं। पशु-भक्षकों के लिए शास्त्रों में सीमित पशु यज्ञों की ही अनुमति है और ऐसी अनुमति भी कसाईघरों के खोलने पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए है, न कि पशु-वध को प्रोत्साहित करने के लिए। शास्त्रों में जिस विधि के अर्न्तगत पशु यज्ञ की अनुमति दी गई है, वह बलि किये जाने वाले पशुओं तथा पशु-भक्षकों दोनों ही के हित में है। यह पशु के हित में यों है, क्योंकि बलि होने वाला पशु वेदी में बलि होते ही मनुष्य योनि प्राप्त कर लेता है और पशु-भक्षक भी स्थूल पापों से बच जाता है (सुनियोजित रूप से चलाये जा रहे कसाईघर ऐसे बिभत्स स्थान हैं, जो समाज, राष्ट्र तथा सामान्य जनता के लिए सभी प्रकार के भौतिक अनिष्टों को पनपने के स्थान हैं-इनके द्वारा दिये जाने वाले मांस का भक्षण करना वही यह स्थूल पाप है )। यह भौतिक जगत स्वयं ही चिन्ताओं से भरा हुआ स्थान है और उसमें पशुओं के वध को प्रोत्साहित करने से सारा वातावरण युद्ध, महामारी, अकाल तथा अन्य कई अवांछित विपत्तियों से अधिकाधिक दूषित होता जाता है।
 
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