इस प्रकार उन्होंने भौतिकता में किसी लिप्तता के बिना, भक्तिमय सेवा (भक्तियोग) से बँधकर अपने मन को पूरी तरह एकाग्र किया। इस तरह उन्होंने परमेश्वर के पूर्णत: अधीन उनकी बहिरंगा शक्ति के समेत उनका दर्शन किया।
तात्पर्य
परम सत्य का सम्यक् दर्शन केवल भक्तियोग द्वारा ही किया जा सकता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में भी हुई है। मनुष्य केवल भक्तिमय सेवा द्वारा ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सही-सही अनुभूति प्राप्त कर सकता है और ऐसे पूर्ण ज्ञान के बल पर ही वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है। निराकार ब्रह्म या अन्तर्यामी परमात्मा के अपूर्ण ज्ञान से पूर्णब्रह्म की अधूरी प्रतीति करके कोई भगवद्धाम में प्रवेश नहीं पा सकता। श्रील नारद ने श्रील व्यासदेव को उपदेश दिया कि वे भगवान् तथा उनकी दिव्य लीलाओं के ध्यान में निमग्न हो जाँए। श्रील व्यासदेव को ब्रह्मतेज नहीं दिखलाई पड़ा, क्योंकि यह पूर्ण दृष्टि नहीं है। पूर्ण दृष्टि तो भगवान् का व्यक्तित्व है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.१९) में हुई है : वासुदेव:सर्वमिति। उपनिषदों में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि भगवान् वासुदेव निर्विशेष ब्रह्म के हिरण्मयेन पात्रेण द्वारा आच्छादित हैं और जब भगवत्कृपा से यह आवरण हटता है, तभी भगवान् का वास्तविक मुख का दर्शन हेता है। परब्रह्म को यहाँ पर पुरुष या व्यक्ति कहा गया है। परम भगवान् का उल्लेख अनेक वैदिक ग्रंथों में हुआ है और भगवद्गीता में तो पुरुष की पुष्टि सनातन तथा आदि पुरुष के रूप में हुई है। भगवान् पूर्ण पुरुष हैं। परम पुरुष की अनेक शक्तियाँ होती हैं जिनमें से अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था शक्तियाँ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ पर बहिरंगा शक्ति का वर्णन हुआ है जैसाकि उसके कार्यकलापों के वर्णनों से स्पष्ट हो जाएगा। अन्तरंगा शक्ति परम पुरुष के साथ उसी प्रकार बनी हुई रहती है, जिस प्रकार चाँद के साथ चाँदनी रहती है। बहिरंगा शक्ति की तुलना अंधकार से की गई है, क्योंकि यह जीवों को अज्ञान के अन्धकार में रखती है। अपाश्रयम् शब्द इस बात का सूचक है कि यह शक्ति पूर्ण रूप से भगवान् के वश में होती है। अन्तरंगा शक्ति या पराशक्ति माया भी कहलाती है, किन्तु यह आध्यात्मिक माया होती है अर्थात् परम जगत में ही यह प्रकट होती है। जब कोई इस अन्तरंगा शक्ति के आश्रय में आता है, तो भौतिक अज्ञान का अन्धकार तुरन्त दूर हो जाता है। यहाँ तक कि जो आत्माराम हैं, अर्थात् जो समाधिस्थ रहते हैं, वे भी इस माया या अन्तरंगा शक्ति का आश्रय ग्रहण करते हैं। भक्तिमय सेवा या भक्तियोग इसी अन्तरंगा शक्ति का कार्य है। इस प्रकार अपरा शक्ति या भौतिक शक्ति के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता, जिस प्रकार आध्यात्मिक प्रकाश के तेज के समक्ष अंधकार को कोई स्थान नहीं मिल पाता। ऐसी अन्तरंगा शक्ति निराकार ब्रह्म-बोध से मिलने वाले आध्यात्मिक आनन्द से भी बढक़र है। भगवद्गीता में कहा गया है कि निराकार ब्रह्म-तेज भी भगवान् श्रीकृष्ण के परम व्यक्तित्व से उद्भूत है। साक्षात् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई परम पुरुष नहीं हो सकता, जैसाकि आगे के श्लोकों में बताया जाएगा।
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