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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  1.7.40 
सूत उवाच
एवं परीक्षता धर्मं पार्थ: कृष्णेन चोदित: ।
नैच्छद्धन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
सूत:—सूत गोस्वामी ने; उवाच—कहा; एवम्—यह; परीक्षता—परीक्षा लेते हुए; धर्मम्—कर्तव्य के मामले में; पार्थ:— श्री अर्जुन; कृष्णेन—भगवान् कृष्ण द्वारा; चोदित:—प्रोत्साहित किये जाने पर; न ऐच्छत्—नहीं चाहा; हन्तुम्—मारना; गुरु-सुतम्—अपने गुरु के पुत्र को; यद्यपि—यद्यपि; आत्म-हनम्—पुत्रों का वधकर्ता; महान्—बहुत बड़ा ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : यद्यपि धर्म में अर्जुन की परीक्षा लेते हुए कृष्ण ने उसे द्रोणाचार्य के पुत्र का वध करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महात्मा अर्जुन को यह विचार नहीं भाया, यद्यपि अश्वत्थामा अर्जुन के ही कुटुम्बियों का नृशंस हत्यारा था।
 
तात्पर्य
 अर्जुन निस्सन्देह एक महात्मा था, जो यहाँ पर भी सिद्ध होता है। यहाँ पर भगवान् कृष्ण स्वयं उसे द्रोण पुत्र का वध करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन अर्जुन सोचता है कि उसे अपने महान् गुरु के पुत्र को प्राणदान देना चाहिए, क्योंकि भले ही वह उसके गुरु का अयोग्य पुत्र हो, उसने अपनी सनक से ऐसे जघन्य कर्म किये हैं जो किसी के भी हित में नहीं थे। लेकिन आखिर है तो वह द्रोणाचार्य का ही पुत्र।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बाहर-बाहर से प्रोत्साहित किया, क्योंकि वे अर्जुन की कर्तव्यपरायणता की परीक्षा लेना चाहते थे। ऐसा नहीं था कि अर्जुन में अपने कर्तव्य का पूरा-पूरा बोध नहीं था, न ही भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के कर्तव्य-बोध से अनजान थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने अपने अनेक शुद्ध भक्तों की परीक्षा उनके कर्तव्य-बोध को विवर्धित करने के लिए ली। गोपियों की भी ऐसी ही परिक्षाएँ ली गईं। प्रह्लाद महाराज की भी परीक्षा ली गई। लेकिन सारे शुद्ध भक्त भगवान् द्वारा ली गई अपनी-अपनी परीक्षाओं में खरे उतरते हैं।

 
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