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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  1.7.43 
उवाच चासहन्त्यस्य बन्धनानयनं सती ।
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरु: ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
उवाच—कहा; —तथा; असहन्ती—उसके लिए असह्य होने के कारण; अस्य—उसका; बन्धन—बाँधा जाना; आनयनम्—उसका लाया जाना; सती—परायणा, भक्त; मुच्यताम् मुच्यताम्—इसे छोड़ दो; एष:—यह; ब्राह्मण:— ब्राह्मण; नितराम्—हमारा; गुरु:—गुरु ।.
 
अनुवाद
 
 वह अश्वत्थामा का इस प्रकार रस्सियों से बाँधा जाना सह न सकी और भगवद्परायण स्त्री होने के कारण उसने कहा “इसे छोड़ दो, क्योंकि यह ब्राह्मण है, हमारा गुरु है।”
 
तात्पर्य
 ज्योंही अश्वत्थामा को द्रौपदी के समक्ष लाया गया तो उसे यह असह्य लगा कि एक ब्राह्मण को अपराधी की भाँति बन्दी बनाकर उस अवस्था में उसके समक्ष लाया जाए, विशेष रूप से तब, जबकि वह ब्राह्मण उनके गुरु का पुत्र था।

अर्जुन ने यह भलीभाँति जानते हुए अश्वत्थामा को बन्दी बनाया था कि वह द्रोणाचार्य का पुत्र है। कृष्ण भी यह जानते थे, किन्तु उन दोनों ने इस पर विचार न करते हुए कि वह ब्राह्मण-पुत्र है, उस हत्यारे की भर्त्सना की। प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार, यदि शिक्षक या गुरु अपने पद की प्रतिष्ठा को बनाए नहीं रख पाता, तो वह गुरु बने रहने के अयोग्य है और उसका तिरस्कार किया जाना चाहिए। गुरु को आचार्य भी कहते हैं, अर्थात् वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसने समस्त शास्त्रों के सार को आत्मसात् कर लिया है और अपने शिष्यों को भी उसका अनुसरण करना सिखाता है। अश्वत्थामा ब्राह्मण या गुरु का कर्तव्य-निर्वाह करने में असफल रहा, अतएव ब्राह्मण के उच्च पद से उसका तिरस्कार होना था। इस दृष्टि से भगवान् कृष्ण तथा अर्जुन दोनों द्वारा अश्वत्थामा की भर्त्सना उचित थी। लेकिन द्रौपदी जैसी उत्तम स्त्री के लिए, यह विषय शास्त्रीय न होकर प्रथा का प्रश्न था। प्रथानुसार अश्वत्थामा को उसके पिता जैसा सम्मान प्रदान किया जाना था। इसका कारण यह है कि लोग भावनावश ब्राह्मण के पुत्र को भी असली ब्राह्मण स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न होती है। ब्राह्मण का सम्मान उसकी योग्यता के कारण होता है, केवल ब्राह्मण पुत्र होने से नहीं।

लेकिन इस सबके बावजूद, द्रौपदी ने इच्छा व्यक्त की कि अश्वत्थामा को तुरन्त मुक्त कर दिया जाय और यह उसकी सद्भावना ही कही जाएगी। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवद्भक्त को स्वयं कितने ही कष्ट क्यों न सहने पड़ें, फिर भी वह अन्यों के प्रति, यहाँ तक कि शत्रु के प्रति भी, कठोर नहीं होता। ये लक्षण हैं भगवान् के शुद्ध भक्त के।

 
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