श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  1.7.45 
स एष भगवान्द्रोण: प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं पत्‍न्‍यास्ते नान्वगाद्वीरसू: कृपी ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; एष:—निश्चय ही; भगवान्—स्वामी; द्रोण:—द्रोणाचार्य; प्रजा-रूपेण—अपने पुत्र अश्वत्थामा के रूप में; वर्तते—उपस्थित हैं; तस्य—उनके; आत्मन:—शरीर का; अर्धम्—आधा; पत्नी—पत्नी; आस्ते—जीवित है; न—नहीं; अन्वगात्—अनुगमन किया; वीरसू:—पुत्र वाली, पुत्रवती; कृपी—कृपाचार्य की बहन ।.
 
अनुवाद
 
 अपने पुत्र द्वारा प्रतिनिधित्व किये जाने के कारण वे (द्रोणाचार्य) अब भी निश्चित रूप से विद्यमान हैं। उनकी पत्नी कृपी सती नहीं हुईं, क्योंकि वे पुत्रवती थीं।
 
तात्पर्य
 द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी कृपाचार्य की बहन थीं। शास्त्रों के अनुसार पतिपरायणा स्त्री, अर्धांगिनी होती है और यदि वह नि:सन्तान हो, तो अपने पति के साथ स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर सकती है। लेकिन द्रोणाचार्य की पत्नी को ऐसा नहीं करना पड़ा, क्योंकि उसके पुत्र था जो उसके पति का प्रतिनिधि था। पुत्रवती विधवा नाम के लिए विधवा होती है। अतएव हर तरह से अश्वत्थामा द्रोणाचार्य का प्रतिनिधि था अतएव अश्वत्थामा का वध करने का अर्थ था,मानो द्रोणाचार्य का वध। अश्वत्थामा के वध न करने के लिए द्रौपदी का यही तर्क था।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥