श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  1.7.46 
तद् धर्मज्ञ महाभाग भवद्भ‍िर्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णश: ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—अतएव; धर्म-ज्ञ—धर्म का ज्ञाता; महा-भाग—अत्यन्त भाग्यशाली; भवद्भि:—आपके द्वारा; गौरवम्— गौरवान्वित; कुलम्—कुल; वृजिनम्—पीड़ादायक; न—नहीं; अर्हति—योग्य है; प्राप्तुम्—पाने के लिए; पूज्यम्—पूज्य; वन्द्यम्—वन्दनीय; अभीक्ष्णश:—निरन्तर ।.
 
अनुवाद
 
 हे धर्म के ज्ञाता परम भाग्यशाली, यह आपको शोभा नहीं देता कि आप सदा से पूज्य तथा वन्दनीय, गौरवशाली परिवार के सदस्यों के शोक का कारण बनें।
 
तात्पर्य
 किसी सम्मानित परिवार के प्रति लेशमात्र अपमान दुख उत्पन्न करने वाला होता है। अत: सुसंस्कृत मनुष्य को चाहिए कि ऐसे पूज्य कुल के सदस्यों के प्रति सोच-समझ कर व्यवहार करे।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥