यै:—जिनके द्वारा; कोपितम्—क्रुद्ध; ब्रह्म-कुलम्—ब्राह्मणों का कुल; राजन्यै:—राजा कुल से; अजित—निरंकुश; आत्मभि:—अपने से; तत्—उस; कुलम्—कुल को; प्रदहति—जला देती है; आशु—तुरन्त; स-अनुबन्धम्—कुटुम्बियों समेत; शुचा-अर्पितम्—कष्ट पाने पर ।.
अनुवाद
यदि इन्द्रियतृप्ति में निरकुंश बनकर राजकुल ब्राह्मण कुल को अपमानित और कुपित करता है, तो वह क्रोध की अग्नि समस्त राजकुल को जला देती है और सबों को दुख देती है।
तात्पर्य
समाज का ब्राह्मण-वर्ग, अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत जाति या समुदाय तथा ऐसे उच्चकुलों के सदस्य सदा ही अन्य आश्रित वर्णों द्वारा, यथा राजन्य, वणिक वर्ग तथा श्रमिकों द्वारा सम्मानित होता था।
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