श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  1.7.5 
यया सम्मोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् ।
परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
यया—जिससे; सम्मोहित:—मोहग्रस्त; जीव:—जीवात्माएँ; आत्मानम्—स्व; त्रि-गुण-आत्मकम्—प्रकृति के तीनों गुणों से बद्ध अथवा पदार्थ का फल; पर:—दिव्य; अपि—के होते हुए भी; मनुते—मान लेता है; अनर्थम्—अनचाही वस्तुएँ; तत्—उससे; कृतम् च—प्रतिक्रिया; अभिपद्यते—भोगता है ।.
 
अनुवाद
 
 जीवात्मा तीनों गुणों से अतीत होते हुए भी इस बहिरंगा शक्ति के कारण अपने आप को भौतिक पदार्थ की उपज मानता है और इस प्रकार भौतिक कष्टों के फलों को भोगता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भौतिकतावादी जीवों के कष्ट का मूल कारण तथा उसके उपाय के रूप में जो कार्य प्राप्त करनी चाहिए, उसके बारे में बतलाया गया है। इन सबका उल्लेख इस श्लोक में हुआ है। जीवात्मा स्वाभाविक रूप से भौतिक पाश से परे है, किन्तु अभी वह बहिरंगा शक्ति द्वारा बन्दी बना लिया गया है अतएव वह अपने आपको भौतिक पदार्थ की उपजों में से एक मानता है। अतएव इस अपवित्र सम्पर्क से विशुद्ध आध्यात्मिक जीव भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन कष्ट सहता है। जीवात्मा भ्रमवश अपने को भौतिक पदार्थ मान बैठता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भौतिक स्थिती के बस में होने के कारण उसके सोचने, अनुभव करने तथा चाहने की वर्तमान विकृत विधि उसके लिए स्वाभाविक नहीं है। तो भी सोचने, अनुभव करने तथा चाहने का उसका अपना सामान्य तरीका होता है। जीव अपनी मूल अवस्था में सोचने, अनुभव करने तथा चाहने की शक्ति से रहित नहीं होता। भगवद्गीता में भी पुष्टि हुई है कि बद्धजीव का वास्तविक ज्ञान, अज्ञान से ढका रहता है। इस प्रकार यहाँ इस सिद्धान्त का खण्डन हो जाता है कि जीवात्मा परम निराकार ब्रह्म है। ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि जीवात्मा की अपनी मूल अबद्ध अवस्था में भी अपनी चिन्तन शैली होती है। वर्तमान बद्ध- अवस्था बहिरंगा शक्ति के प्रभाव के कारण है जिसका अर्थ यह है कि परमेश्वर पृथक् रहते आते हैं और मोहमयी शक्ति (माया) पहल करती है। भगवान् कभी नहीं चाहते कि जीवात्मा बहिरंगा शक्ति द्वारा भरमाया जाए। बहिरंगा शक्ति भी इस तथ्य से भलीभाँति परिचित है, किन्तु वह अपनी मोहनी शक्ति से विस्मृत जीव को भरमाये रखने का अकृतज्ञ कार्य करती है। भगवान् भ्रामिका शक्ति के कार्य में कोई बाधा नहीं डालते, क्योंकि उसके ये कार्य बद्धजीव को सुधारने के लिए आवश्यक होते हैं। कोई स्नेहिल पिता नहीं चाहता कि अन्य कोई व्यक्ति उसकी सन्तान को प्रताडि़त करे, तो भी वह अपने उद्दंड पुत्र को सुधारने के लिए कठोर व्यक्ति के संरक्षण में सौंप देता है। लेकिन साथ ही, सर्व-स्नेहिल सर्वशक्तिमान पिता बद्धजीवों को भ्रामिका शक्ति (माया) के चंगुल से छुटकारा दिलाने के लिए उत्सुक रहते हैं। राजा अवज्ञाकारी नागरिकों को बन्दीगृह की चारदीवारी के भीतर डाल देता है, लेकिन कभी-कभी बन्दी को राहत देने की इच्छा से वह स्वयं बन्दीगृह में जाता है और उनसे सुधरने के लिए कहता है और उसके ऐसा करने पर वह बन्दी को मुक्त कर देता हैं। इसी प्रकार परमेश्वर अपने राज्य से भ्रामिका शक्ति के राज्य में अवतरित होकर भगवद्गीता के रूप में राहत देते हैं, जहाँ पर वे व्यक्तिगत रूप से सुझाव देते हैं कि यद्यपि भ्रामिका शक्ति पर विजय पाना दुष्कर है, तो भी यदि कोई भगवान् के चरणकमलों की शरण में आता है, तो भगवान् के आदेश से वह मुक्त हो जाता है। शरणागति की यह विधि माया के भ्रामक प्रभाव से छुटकारा पाने का उपाय है। अत: भगवान् का सुझाव है कि सन्त पुरुषों की वाणी के प्रभाव से, जिन्होंने वास्तव में परम की अनुभूति कर ली है, वे लोग भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में संलग्न हों। बद्धजीव को भगवान् के विषय में सुनने में आस्वाद मिलने लगता है और इस प्रकार श्रवण करने से ही वह भगवान् के प्रति आदर, भक्ति तथा आसक्ति के पद तक ऊपर उठ जाता है। शरणागति विधि से सभी कुछ पूरा हो जाता है। यहाँ पर व्यासदेव के अवतार रूप में भगवान् ने यही सुझाव रखा है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् द्वारा बद्धजीवों का दोनों प्रकार से उद्धार किया जाता है—एक तो भगवान् की बहिरंगा शक्ति के द्वारा दण्डित होकर तथा दूसरी ओर भगवान् द्वारा अन्तस्थ और बाह्य गुरु बनकर। भगवान् प्रत्येक जीव के अन्त:करण में परमात्मा रूप में गुरु बनते हैं और बाहर से वे शास्त्रों, सन्तों तथा दीक्षा- गुरु के रूप में गुरु बनते हैं। अगले श्लोक में इसकी अधिक स्पष्ट व्याख्या की गई है।

वेदों में (केनोपनिषद् में) देवताओं की नियन्त्रक शक्ति के सम्बन्ध में भ्रामिका शक्ति के व्यक्तिगत अधीक्षण की पुष्टि की गई है। यहाँ पर भी यह स्पष्ट कहा गया है कि जीवात्मा बहिरंगा शक्ति द्वारा व्यक्तिगत सामर्थ्य में नियन्त्रित होता है। इस प्रकार जो जीव बहिरंगा शक्ति के नियन्त्रण में आ जाता है वह भिन्न रूप से अवस्थित होता है। फिर भी भागवत के इस कथन से यह स्पष्ट है कि वही बहिरंगा शक्ति, पूर्ण पुरूष भगवान् के समक्ष, निकृष्ट स्थित पर रहती है। पूर्ण व्यक्ति या भगवान् तक भ्रामिका शक्ति पहुँच भी नहीं पाती, क्योंकि वह केवल जीवों पर ही अपना कार्य कर पाती है। अतएव यह तो मात्र कल्पना है कि भगवान् भ्रामिका शक्ति द्वारा भ्रमित होते हैं और बाद में जीव बन जाते हैं। यदि भगवान् तथा जीव एक ही श्रेणी में होते, तो व्यासदेव के लिए इसे देख पाना सम्भव होता और भ्रमित जीवों के भौतिक दुख का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि परमेश्वर सब कुछ जानते हैं। अतएव अनेक अद्वैतवादियों द्वारा भगवान् तथा जीव को एक ही श्रेणी में रखने का प्रयास छिछोरी कल्पनाएँ मात्र हैं। यदि भगवान् तथा जीव एक से ही होते, तो श्रील शुकदेव गोस्वामी भगवान् की दिव्य लीलाओं का वर्णन करने का कष्ट न उठाते, क्योंकि ये सब भ्रामिका शक्ति की अभिव्यक्तियाँ होतीं।

श्रीमद्भागवत माया के चंगुल में कष्ट पाने वाली मानवता के लिए रामबाण उपचार है। अतएव श्रील व्यासदेव ने सर्वप्रथम बद्धजीवों के वास्तविक रोग का निदान किया, जो है बहिरंगा शक्ति द्वारा भ्रमित होना। उन्होंने उन पूर्ण परम पुरुष के भी दर्शन किये, जिनसे भ्रामिका शक्ति बहुत दूर रहती है, यद्यपि उन्होंने रुग्ण बद्धजीवों तथा रोग के कारण दोनों को देखा। रोग के उपचार की विधियाँ अगले श्लोक में सुझाई गई हैं। निस्सन्देह भगवान् तथा जीव दोनों ही गुणवत्ता की दृष्टि से समान हैं, लेकिन भगवान् भ्रामिका शक्ति के नियन्ता हैं, जबकि जीव इसी भ्रामिका शक्ति द्वारा नियन्त्रित होते हैं। इस प्रकार भगवान् तथा जीव एकसाथ अभिन्न तथा भिन्न हैं। दूसरा अन्तर इस प्रकार है—भगवान् तथा जीव के बीच का सनातन सम्बन्ध दिव्य है, अन्यथा वे माया के चंगुल से बद्धजीवों का उद्धार करने का कष्ट न लेते। इसी प्रकार से जीव को भी भगवान् के प्रति अपने प्राकृतिक प्रेम तथा स्नेह को जगाने की आवश्यकता रहती है और जीव की यही सर्वोच्च पूर्णता है। जीवन के इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर श्रीमद्भागवत में बद्धजीवों का वर्णन हुआ है।

 
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