श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 53-54
 
 
श्लोक  1.7.53-54 
श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हण: ।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ॥ ५३ ॥
कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सान्‍त्वयता प्रियाम् ।
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; ब्रह्म-बन्धु:—ब्राह्मण का सम्बन्धी; न—नहीं; हन्तव्य:—वध करने योग्य; आततायी—आततायी, आक्रामक; वध-अर्हण:—वध करने योग्य है; मया—मेरे द्वारा; एव—निश्चय ही; उभयम्— दोनों; आम्नातम्—शास्त्र के आदेशानुसार; परिपाहि—पालन करो; अनुशासनम्—आदेश; कुरु—पालन करो; प्रतिश्रुतम्—जैसाकि प्रतिज्ञा की गई है; सत्यम्—सत्य; यत् तत्—वह जो; सान्त्वयता—सान्त्वना देते हुए; प्रियाम्—प्रिय पत्नी को; प्रियम्—तुष्टि; च—तथा; भीमसेनस्य—श्रीभीमसेन की; पाञ्चाल्या:—द्रौपदी की; मह्यम्—मेरी भी; एव— निश्चय ही; च—तथा ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा : किसी ब्रह्मबन्धु का वध नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि वह आततायी हो, तो उसे अवश्य मारना चाहिए। ये सारे आदेश शास्त्रों में हैं और तुम्हें इन्हीं के अनुसार कार्य करना चाहिए। तुम्हें अपनी पत्नी को दिये गये वचन भी पूरे करने हैं और तुम्हें भीमसेन तथा मेरी तुष्टि के लिए भी कार्य करना है।
 
तात्पर्य
 अर्जुन असमंजस में था, क्योंकि विभिन्न शास्त्रों में से विभिन्न व्यक्तियों द्वारा दिये गये प्रमाण के अनुसार अश्वत्थामा का वध होना था और उसे जीवनदान भी मिलना था। ब्रह्मबन्धु या ब्राह्मण के निकम्मे पुत्र के रूप में अश्वत्थामा वध्य नहीं था, किन्तु साथ ही वह आततायी भी था। मनु द्वारा निर्दिष्ट मत के अनुसार आततायी, यद्यपि वह ब्राह्मण ही क्यों न हो, (ब्राह्मण के अयोग्य पुत्र का क्या कहना) वध्य होता है। द्रोणाचार्य निस्सन्देह असली ब्राह्मण थे, लेकिन वे युद्धभूमि में डटे थे, इसलिए मारे गये। पर अश्वत्थामा आततायी होकर भी बिना किसी अस्त्र के खड़ा था। नियम इस तरह है कि यदि आततायी अस्त्ररहित या रथविहीन हो, तो उसका वध नहीं किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से ये सब अर्जुन की उलझनें थीं। इनके अतिरिक्त, अर्जुन को अपने उस वचन का पालन करना था, जिसे उसने द्रौपदी को सान्त्वना देते हुए दिया था। और उसे भीम तथा कृष्ण को भी सन्तुष्ट करना था, जिन्होंने अश्वत्थामा के वध की सलाह दी थी। यह दुविधा थी अर्जुन के समक्ष और इसका समाधान निकाला कृष्ण ने।
 
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