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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 7: द्रोण-पुत्र को दण्ड  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  1.7.55 
सूत उवाच
अर्जुन: सहसाज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना ।
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम् ॥ ५५ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; अर्जुन:—अर्जुन ने; सहसा—ठीक उसी समय; आज्ञाय—जानते हुए; हरे:—भगवान् के; हार्दम्—अभीष्ट; अथ—इस प्रकार; असिना—तलवार से; मणिम्—मणि को; जहार—विलग कर दिया; मूर्धन्यम्— सिर पर; द्विजस्य—द्विज के; सह—सहित; मूर्धजम्—बालों के ।.
 
अनुवाद
 
 उसी समय अर्जुन भगवान् की अनेकाधिक आज्ञा का प्रयोजन समझ गया और इस तरह उसने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर से केश तथा मणि दोनों पृथक् कर दिये।
 
तात्पर्य
 विभिन्न व्यक्तियों के परस्पर विरोधी आदेशों का पालन करना असम्भव होता है। अतएव अर्जुन ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से मध्यम मार्ग खोज निकाला और उसने अश्वत्थामा के सिर से मणि पृथक् कर दी। यह उसका सिर काटने जैसा ही था, फिर भी व्यावहारिक रूप से उसकी जान बची रही। यहाँ पर अश्वत्थामा को द्विज कहा गया है। निस्सन्देह, वह द्विज था, लेकिन वह अपने पद से गिर चुका था, इसलिए उसे उचित ही दण्ड मिला।
 
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