स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।
शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनि: ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; संहिताम्—वैदिक साहित्य; भागवतीम्—भगवान् से सम्बन्धित; कृत्वा—करके; अनुक्रम्य—शुद्धि तथा आवृत्ति द्वारा; च—तथा; आत्म-जम्—अपने पुत्र; शुकम्—शुकेदव गोस्वामी को; अध्यापयाम् आस—पढ़ाया; निवृत्ति—आत्म-साक्षात्कार का मार्ग; निरतम्—संलग्न; मुनि:—मुनि ने ।.
अनुवाद
श्रीमद्भागवत का संकलन कर लेने तथा उसे संशोधित करने के बाद महर्षि व्यासदेव ने इसे अपने पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी को पढ़ाया, जो पहले से ही आत्म-साक्षात्कार में निरत थे।
तात्पर्य
श्रीमद्भागवत व्यास देव द्वारा ही संकलित ब्रह्म-सूत्र का सहज भाष्य है। यह ब्रह्म-सूत्र या वेदान्त-सूत्र उन लोगों के निमित्त है, जो पहले से आत्म-साक्षात्कार में निरत हैं। श्रीमद्भागवत इस तरह रचा गया है कि इसकी कथाएँ सुनते ही मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में तुरन्त प्रवृत्त हो जाता है। यद्यपि यह मूल रूप से परमहंसों अर्थात् आत्म-साक्षात्कार में पूर्णरूपेण संलग्न व्यक्तियों के लिए है, लेकिन यह संसारी व्यक्तियों के हृदयों में गहराइ तक प्रविष्ट होकर प्रभाव डालता है। सारे संसारी व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति में लगे हुए हैं। लेकिन ऐसे लोग भी इस वैदिक साहित्य में अपने भवरोगों के निवारक उपचार पाते हैं। शुकदेव गोस्वामी अपने जन्म काल से ही मुक्त जीव थे और उनके पिता ने उन्हें श्रीमद्भागवत पढ़ाया। संसारी विद्वानों में श्रीमद्भागवत के संकलन के काल को लेकर मतभेद है। तथापि श्रीमद्भागवत के मूल पाठ से यह निश्चित है कि इसका संकलन राजा परीक्षित के तिरोधान के पूर्व और भगवान् कृष्ण के प्रयाण के पश्चात् हुआ था। जब राजा परीक्षित भारतवर्ष के सम्राट के रूप में राज्य कर रहे थे, तब उन्होंने मूर्तिमंत कलि को दण्डित किया। प्राधिकृत शास्त्रों तथा ज्योतिष गणना के अनुसार, कलियुग अपने पाँच हजारवें वर्ष में है। अत: श्रीमद्भागवत कम से कम पाँच हजार वर्ष पूर्व संकलित हुआ था। महाभारत का संकलन श्रीमद्भागवत के पूर्व हो चुका था और सारे पुराण महाभारत के पूर्व संकलित हो चुके थे। यह है विभिन्न वैदिक ग्रंथों के संकलन काल का एक आकलन। श्रीमद्भागवत की रूपरेखा नारद के निर्देशानुसार पहले ही तैयार हो चुकी थी। श्रीमद्भागवत निवृत्ति मार्ग पर अग्रसर होने का विज्ञान है। नारद ने प्रवत्ति मार्ग का तिरस्कार किया था। यह मार्ग समस्त बद्धजीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। श्रीमद्भागवत की विषयवस्तु मानव जाति के भवरोग का, या संसार के तापों को पूर्ण रूप से रोकने का, उपचार है।
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