शौनक उवाच
स वै निवृत्तिनिरत: सर्वत्रोपेक्षको मुनि: ।
कस्य वा बृहतीमेतामात्माराम: समभ्यसत् ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
शौनक: उवाच—श्री शौनक ने पूछा; स:—वह; वै—निश्चय ही; निवृत्ति—आत्म-साक्षात्कार के पथ पर; निरत:—सदैव लगा हुआ; सर्वत्र—सभी प्रकार से; उपेक्षक:—उदासीन; मुनि:—मुनि; कस्य—किस कारण से; वा—अथवा; बृहतीम्—विशाल; एताम्—इस; आत्म-आराम:—अपने आप में प्रसन्न रहने वाला; समभ्यसत्—अध्ययन किया ।.
अनुवाद
श्री शौनक ने सूत गोस्वामी से पूछा : शुकदेव गोस्वामी तो पहले से ही निवृत्ति मार्ग पर चले रहे थे और इस तरह वे अपने आप में प्रसन्न थे। तो फिर उन्होंने ऐसे बृहत् साहित्य का अध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाया?
तात्पर्य
सामान्य लोगों के लिए जीवन की चरम सिद्धि भौतिक कार्यकलापों को बन्द करके आत्म-साक्षात्कार के पथ (निवृत्ति मार्ग) पर स्थिर होने में है। जो लोग इन्द्रियभोग में सुख पाते हैं या जो भौतिक शारीरिक कल्याण के कार्य में स्थिर हैं, वे कर्मी कहलाते हैं। ऐसे हजारों तथा लाखों कर्मीयोंं में से कोई एक कर्मी आत्म-साक्षात्कार द्वारा आत्माराम बन पाता है। आत्म का अर्थ है स्व तथा आराम का अर्थ है सुख पाना। प्रत्येक व्यक्ति उच्चतम सुख की खोज में लगा रहता है, लेकिन इस सुख का मानदण्ड व्यक्ति-व्यक्ति के साथ अलग-अलग हो सकता है। अतएव कर्मीयों द्वारा भोगा गया आदर्श सुख आत्मारामों के आदर्श सुख से भिन्न होता है। आत्माराम हर तरह से भौतिक भोग के प्रति अन्यमनस्क रहते हैं। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने यह अवस्था पहले से ही प्राप्त कर ली थी, तो भी उन्होंने इस बृहत् भागवत ग्रंथ का अध्ययन करने का कष्ट उठाया। इसका अर्थ यह है कि श्रीमद्भागवत उन आत्मारामों के लिए भी स्नाकतोत्तर अध्ययन का विषय है, जिन्होंने समस्त वैदिक ज्ञान का अध्ययन कर लिया हो।
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