अन्त:स्थ: सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरोहरि: ।
स्वमाययावृणोद्गर्भं वैराट्या: कुरुतन्तवे ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
अन्त:स्थ:—अन्तर में रहते हुए; सर्व—समस्त; भूतानाम्—जीवों के; आत्मा—आत्मा; योग-ईश्वर:—समस्त योग के स्वामी; हरि:—परमेश्वर; स्व-मायया—अपनी निजी शक्ति से; आवृणोत्—आच्छादित कर लिया; गर्भम्—भ्रूण को; वैराट्या:—उत्तरा के; कुरु-तन्तवे—महाराज कुरु की वंशवृद्धि के लिए ।.
अनुवाद
परम योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा के रूप में निवास करते हैं। अतएव, कुरु-वंश की संतति की रक्षा करने के लिए उन्होंने उत्तरा के गर्भ को अपनी निजी शक्ति से आवृत कर लिया।
तात्पर्य
परम योगी भगवान्, परमात्मा-स्वरूप में अर्थात् अपने पूर्ण अंश के रूप में एक ही समय में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अथवा परमाणुओं के भीतर भी निवास कर सकते हैं। अतएव, उन्होंने महाराज परीक्षित को बचाने के लिए तथा महाराज कुरु के वंश की रक्षा करने के लिए उत्तरा के गर्भ को आच्छादित कर दिया। महाराज पाण्डु भी कुरु के ही वंशज थे। इस प्रकार धृतराष्ट्र तथा पाण्डु दोनों
के ही पुत्र महाराज कुरु के वंशज थे, अतएव दोनों ही सामान्य रूप से कुरु कहलाते थे। लेकिन जब इन दोनों परिवारों में मनोमालिन्य हो गया, तो धृतराष्ट्र के पुत्र कुरु कहलाने लगे और पाण्डु के पुत्र पाण्डव कहलाने लगे। चूँकि कुरुक्षेत्र के युद्ध में धृतराष्ट्र के सारे पुत्र तथा पौत्र मारे जा चुके थे, अतएव इस वंश का अन्तिम पुत्र कुरु-पुत्र के नाम से अभिहित किया गया है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥