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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  1.8.17 
ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैरात्मजै: सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णमिदमाह पृथा सती ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्म-तेज:—ब्रह्मास्त्र का विकिरण ; विनिर्मुक्तै:—से बचकर; आत्म-जै:—अपने पुत्रों; सह—समेत; कृष्णया—द्रौपदी के; प्रयाण—जाते हुए; अभिमुखम्—ओर; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण को; इदम्—यह; आह—कहा; पृथा—कुन्ती ने; सती—भगवान् की भक्त, सती ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार ब्रह्मास्त्र के विकिरण से बचकर भगवान् की भक्त सती कुन्ती ने अपने पाँच पुत्रों तथा द्रौपदी-सहित, घर के लिए प्रस्थान करने को उद्यत श्रीकृष्ण को इस तरह सम्बोधित किया।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति के कारण कुन्ती को यहाँ पर सती कहा गया है। अब उसके मन को आगे दी हुई भगवान् की स्तुति में व्यक्त किया जायेगा। भगवान् का सच्चा भक्त कभी अन्य किसी से, यहाँ तक कि संकट से उबारने के लिए भी, किसी जीव या देवता से दया की भीख नहीं माँगता। यही विशेषता लगातार सारे पाण्डव-कुल में बनी रही। वे कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते थे, अतएव भगवान् भी सभी परिस्थितियों में उनकी हर प्रकार से सहायता करने को उद्यत रहते थे। यह भगवान् का दिव्य स्वभाव है। वे भक्त की निर्भरता को पुरस्कृत करते हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपूर्ण जीवों या देवताओं से सहायता की याचना न करे, अपितु भगवान् कृष्ण से याचना करे, क्योंकि वे अपने भक्तों को बचाने में सक्षम हैं। ऐसा सच्चा भक्त भी भगवान् से सहायता कभी नहीं माँगता, किन्तु भगवान् अपनी खुद की इच्छा से ऐसा करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।
 
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