कुन्ती उवाच—श्रीमती कुन्ती ने कहा; नमस्ये—मेरा नमस्कार है; पुरुषम्—परम पुरुष को; त्वा—आप; आद्यम्—मूल; ईश्वरम्—नियन्ता; प्रकृते:—भौतिक ब्रह्माण्डों के; परम्—परे; अलक्ष्यम्—अदृश्य; सर्व—समस्त; भूतानाम्—जीवों के; अन्त:—भीतर; बहि:—बाहर; अवस्थितम्—स्थित ।.
अनुवाद
श्रीमती कुन्ती ने कहा : हे कृष्ण, मैं आपको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि आप ही आदि पुरुष हैं और इस भौतिक जगत के गुणों से निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के भीतर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबों के लिए अदृश्य हैं।
तात्पर्य
श्रीमती कुन्ती देवी को भलीभाँति ज्ञात था कि कृष्ण आदि भगवान् हैं, भले ही वे उनके भतीजे लगते थे। ऐसी प्रबुद्ध महिला अपने भतीजे को नमस्कार करने की गलती नहीं कर सकती थी। अतएव, उन्होंने उन्हें आदि पुरुष के रूप में सम्बोधित किया, जो भौतिक जगत से परे हैं। यद्यपि सारे जीव भी दिव्य हैं, लेकिन वे न तो आदि हैं, न अच्युत। जीव भौतिक प्रकृति के चंगुल में पडक़र नीचे गिर सकते हैं, लेकिन भगवान कभी भी ऐसे नहीं हैं। अतएव वेदों में उन्हें समस्त जीवों में प्रधान कहा गया है। (नित्यो नित्यानाम् चेतनश्चेतनानाम्)। तब उन्होंने उन्हें पुन: ईश्वर या नियन्ता के रूप में सम्बोधित किया। जीव, या चन्द्र तथा सूर्य जैसे देवता भी कुछ हद तक ईश्वर हैं, लेकिन इनमें से कोई भी परमेश्वर अथवा परम नियंता नहीं है। वे ही परमेश्वर या परमात्मा हैं। वे अन्त: तथा बाह्य दोनों में विद्यमान रहते हैं। यद्यपि वे श्रीमती कुन्ती के समक्ष उनके भतीजे के रूप में उपस्थित थे, लेकिन वे उनके तथा अन्य सबों के अन्तर में भी विद्यमान थे। भगवद्गीता (१५.१५) में भगवान् कहते हैं, “मैं प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हूँ और मुझी से उसमें स्मृति, विस्मृति, ज्ञान इत्यादि हैं। समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ, क्योंकि मैं वेदों का संकलनकर्ता तथा वेदान्त को पढ़ाने वाला हूँ।” रानी कुन्ती पुष्टि करती हैं कि यद्यपि भगवान् समस्त जीवों के भीतर तथा बाहर हैं, तो भी वे अदृश्य हैं। कहने का भाव यह है कि भगवान् सामान्य व्यक्ति के लिए पहेली-तुल्य हैं। महारानी कुन्ती ने साक्षात् अनुभव किया कि भगवान् कृष्ण उनके समक्ष उपस्थित हैं, फिर भी उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट होकर उन्होंने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भ्रूण की रक्षा की। वे स्वयं असमंजस में थी कि कृष्ण सर्वव्यापी हैं, या स्थानीय। वस्तुत: वे दोनों हैं, लेकिन यह अधिकार उनको ही है कि जो लोग उनके शरणागत नहीं हैं, उनके समक्ष प्रकट न हों। अवरोध का यह पर्दा भगवान् की माया-शक्ति कहलाती है और यही वि जीव की संकुचित दृष्टि को नियन्त्रित करती है। इस की व्याख्या आगे की गई है।
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