अत: मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाडले, नन्द के लाल तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आये हैं।
तात्पर्य
किसी भी भौतिक सम्पदा द्वारा प्राप्त न किये जा सकने वाले भगवान् इस प्रकार, अपने अनन्य भक्तों पर विशेष अनुग्रह दिखाने तथा आसुरी लोगों के उपद्रवों का शमन करने के लिए अपनी असीम अहैतुकी कृपा से इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। महारानी कुन्ती, अन्य सभी अवतारों की अपेक्षा भगवान् कृष्ण के अवतरण की विशेष रूप से पूजा करती हैं, क्योंकि वे इसी रूप में सरलता से प्राप्त किये जा सकते हैं। राम-अवतार में वे बचपन से ही राजा के पुत्र बने रहे, लेकिन कृष्ण-अवतार में राजा के पुत्र होते हुए भी, उन्होंने अपने असली माता -पिता (राजा वसुदेव तथा महारानी देवकी) के संरक्षण को जन्मते ही त्याग दिया और यशोदा माई की गोद में चले गये, जिससे उनकी बाल लीलाओं के कारण अत्यन्त पावन वृन्दावन की पुण्य भूमि में वे सामान्य ग्वाल-बाल का अभिनय कर सकें अतएव भगवान् कृष्ण भगवान् राम की अपेक्षा अधिक दयालु हैं। वे कुन्ती के भाई वसुदेव तथा उनके परिवार के प्रति विशेष रूप से अत्यन्त दयालु थे। यदि कृष्ण वसुदेव तथा देवकी के पुत्र रूप में जन्म न लिये होते, तो महारानी कुन्ती उन्हें अपना भतीजा मानकर इतने वात्सल्यभाव से उन्हें सम्बोधित न कर पातीं। किन्तु अधिक भाग्यशाली तो नन्द और यशोदा हैं, जिन्होंने भगवान् की बाल-लीलाओं का रस लूटा, जो अन्य लीलाओं से अधिक मनोहारी है। व्रजभूमि वृन्दावन में प्रदर्शित की गई उनकी बाललीलाओं के समान अन्य कुछ नहीं है, जो चिन्तामणि धाम के नाम से ब्रह्म-संहिता में वर्णित मूल कृष्णलोक में हो रही उनकी सनातन लीलाओं का एक नमूना है। भगवान् श्रीकृष्ण व्रजभूमि में अपने दिव्य पार्षदों तथा साज-सामग्री के साथ स्वयं अवतरित हुए थे। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुष्टि की है कि व्रजभूमि के वासियों के समान अन्य कोई भाग्यशाली नहीं है और उनमें भी गोपियाँ विशेष रूप से भाग्यशालिनी हैं, क्योंकि उन्होंने भगवान् की प्रसन्नता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वे नन्द तथा यशोदा के साथ, ग्वालों के साथ तथा विशेष रुप से ग्वाल-बालों एवं गौवों के साथ अपनी लीलाओं के कारण गोविन्द कहलाये। गोविन्द-रूप में भगवान् ब्राह्मणों तथा गौवों के प्रति विशेष सदय हैं, जिसका अर्थ है कि मानवीय सम्पन्नता बहुत कुछ इन्हीं दो बातों पर निर्भर करती है—एक तो ब्रह्मण संस्कृति तथा दूसरी गो-रक्षा। जहाँ इन दोनों का अभाव रहता है, वहाँ भगवान् कृष्ण कभी प्रसन्न नहीं होते।
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