श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.8.26 
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमद: पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
जन्म—जन्म; ऐश्वर्य—ऐश्वर्य; श्रुत—शिक्षा; श्रीभि:—सुन्दरता के स्वामित्व द्वारा; एधमान—लगातार वृद्धि करता हुआ; मद:—प्रमत्तता; पुमान्—मनुष्य; न—कभी नहीं; एव—ही; अर्हति—पात्र होता है; अभिधातुम्—सम्बोधित करने के लिये; वै—निश्चय ही; त्वाम्—आपको; अकिञ्चन-गोचरम्—जो भौतिक दृष्टि से दरिद्र मनुष्य के द्वारा सरलता से प्राप्त हो सके ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा, जो भौतिक दृष्टि से अकिंचन हैं। जो सम्मानित कुल, ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढऩे के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।
 
तात्पर्य
 भौतिक दृष्टि से समुन्नत होने का अर्थ है किसी कुलीन परिवार में जन्म लेना और प्रचुर सम्पत्ति, शिक्षा तथा आकर्षक सौंदर्य से युक्त होना। सारे भौतिकतावादी लोग इन सारे भौतिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करने के पीछे पागल रहते हैं और इसी को भौतिक सभ्यता की उन्नति कहा जाता है। लेकिन परिणाम यह होता है कि इन समस्त क्षणिक भौतिक सम्पत्तियों के होने से मनुष्य कृत्रिम रूप से गर्वित हो उठता है और मदान्ध हो जाता है। फलस्वरूप, भौतिकता के नशे में चूर ऐसे लोग भगवान् का पवित्र नाम लेने तथा भावविभोर होकर ‘हे गोविन्द, हे कृष्ण’ सम्बोधित करने में अक्षम हो जाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान् का पवित्र नाम एक बार भी लेने से पापी इतने पापों से मुक्त हो जाता है, जितने वह कर भी नहीं सकता। भगवान् का पावन नाम लेने में इतनी शक्ति है। इस कथन में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। सचमुच भगवान् के पवित्र नाम में ऐसी प्रबल शक्ति है। लेकिन ऐसा नाम लेने में गुणता चाहिए यह भाव की गुणता पर निर्भर करता है। एक असहाय व्यक्ति भगवान् का नाम भावविभोर होकर ले सकता है, लेकिन यदि उसी नाम को कोई भौतिकता से सम्पन्न व्यक्ति लेता है, तो उसमें उतनी निष्ठा नहीं हो सकती। भौतिकता के मद में फूला रहनेवाला व्यक्ति यदा-कदा भगवान् का पवित्र नाम जप सकता है, लेकिन वह गुणतापूर्वक नाम लेने में अक्षम होता है। अतएव भौतिक उन्नति के चार सिद्धान्त—१) उच्चकुल, २) सम्पत्ति, ३) उच्च शिक्षा तथा ४) आकर्षक सौंदर्य—ये चारों आध्यात्मिक उन्नति के पथ में अग्रसर होने के लिये मानो अयोग्यताएँ हैं। शुद्ध आत्मा का भौतिक आवरण बाह्य गुण है, जिस प्रकार ज्वर रुग्ण शरीर का बाह्य गुण होता है। सामान्य विधि यह है कि ज्वर की तीव्रता कम की जाय, न कि कुपचार द्वारा उसे बढ़ाया जाय। कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति भौतिक रूप से निर्धन रह जाते हैं। लेकिन इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिये। उल्टे, यह निर्धनता शुभ चिह्न है, जिस प्रकार कि शरीर में ज्वर का ताप घटना शुभ है। जीवन का उद्देश्य उस भौतिक मद को घटाना होना चाहिए, जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य के विषय में अधिकाधिक भ्रमित होता जाता है। इस प्रकार से मोहग्रस्त व्यक्ति भगवद्धाम जाने के लिये सर्वथा अनुपयुक्त होते हैं।
 
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