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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  1.8.29 
न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद्
द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिर्नृणाम् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; वेद—जानता; कश्चित्—कोई; भगवन्—हे भगवान्; चिकीर्षितम्—लीलाएँ; तव—आपकी; ईहमानस्य— सांसारिक व्यक्तियों की भाँति; नृणाम्—सामान्य लोगों का; विडम्बनम्—भ्रामक; —कभी नहीं; यस्य—जिसका; कश्चित्—कोई; दयित:—विशेष कृपा-पात्र; अस्ति—है; कर्हिचित्—कहीं; द्वेष्य:—ईर्ष्या की वस्तु; —तथा; यस्मिन्—जिसमें; विषमा—पक्षपात; मति:—विचार; नृणाम्—मनुष्यों का ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवान्, आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता, क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपा-पात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल लोगों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।
 
तात्पर्य
 पतितात्माओं पर भगवान् की कृपा समान रूप से वितरित होती हैं। वे किसी से शत्रुता नहीं रखते। भगवान् को मनुष्य समझने की धारणा ही भ्रामक है। उनकी लीलाएँ मनुष्य के ही सदृश प्रतीत होती हैं, लेकिन वास्तव में वे दिव्य होती हैं और किसी भौतिक कल्मष से सर्वथा रहित होती हैं। निस्सन्देह, वे अपने शुद्ध भक्तों का पक्षपात करने वाले माने जाते हैं, लेकिन वास्तव में वे कभी पक्षपात करते नहीं, जिस प्रकार कि सूर्य किसी का पक्षपात नहीं करता। सूर्य की किरणों से कभी-कभी पत्थर भी बहुमूल्य बन जाता है, जबकि एक अन्धा व्यक्ति प्रचुर सूर्य प्रकाश में रहकर भी देख नहीं पाता। अन्धकार तथा प्रकाश दो विपरीत धारणाएँ हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि सूर्य अपनी किरणों का वितरण करने में पक्षपात करता है। सूर्य की किरणें सबों के लिए प्राप्य हैं, लेकिन ग्रहणकर्ताओं की क्षमताएँ भिन्न-भिन्न हैं। मूर्ख लोग सोचते हैं कि भक्ति तो भगवान् की चाटुकरिता करके उनकी विशेष कृपा प्राप्त करना है। वस्तुत: भगवान् की दिव्य प्रेममय सेवा में लगे शुद्ध भक्त कोई व्यापारी समुदाय नहीं हैं। व्यापारी वर्ग धन के विनिमय में सेवा करता है। लेकिन शुद्ध भक्त ऐसी लेन-देन के लिए सेवा नहीं करता। अतएव भगवान् की कृपा का द्वार उसके लिए सदैव खुला रहता है। विपदाग्रस्त तथा जरूरतमन्द लोग, जिज्ञासु या विचारक व्यक्ति भगवान् से किसी लाभ-सिद्धि के लिए उनसे अस्थायी सम्बन्ध स्थापित करते हैं। लेकिन जब उनका कार्य सिद्ध हो जाता है, तो वे भगवान् से कोई नाता नहीं रखते। कोई दुखियारा व्यक्ति यदि तनिक भी पवित्र होता है, तो भगवान् से छुटकारे के लिए प्रार्थना करता है। लेकिन जैसे ही उसके कष्ट दूर हो जाते हैं, बहुधा ऐसा आर्त व्यक्ति भगवान् से आगे अपना सम्बन्ध बनाए रखने की कोई परवाह नहीं करता है। यद्यपि भगवान् की कृपा का द्वार उसके लिए खुला रहता है, किन्तु वह उससे कतराता है। एक शुद्ध भक्त तथा मिश्रित भक्त में यही अन्तर है। जो लोग भगवान् की सेवा के बिल्कुल विरुद्ध रहते हैं, वे निकृष्ट अन्धकार में रहे हुए माने जाते हैं; जो आवश्यकता के समय भगवान् से प्रार्थना करते हैं, वे कृपा के आंशिक पात्र हैं और जो भगवान् की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं, वे भगवान् के पूर्ण कृपापात्र होते हैं। भगवान् की कृपा प्राप्त करने में ऐसा पक्षपात ग्रहणकर्ता के सापेक्ष है, न कि परम कृपालु भगवान् के पक्षपात के कारण।

जब भगवान् अपनी पूर्ण कृपामय शक्ति द्वारा इस जगत में अवतरित होते हैं, तो वे मनुष्य की भाँति क्रीड़ा करते हैं। अतएव, ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने भक्तों का पक्षपात करते हैं, लेकिन यह तथ्य नहीं है। ऐसे पक्षपात की प्रतीति के बावजूद, उनकी कृपा समान रूप से वितरित रहती है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में भगवान् के समक्ष जितने भी व्यक्ति युद्ध में मरे, उन सबको पात्रता को विचार किये बिना ही मुक्ति मिल गई, क्योंकि भगवान् के समक्ष मृत्यु होने से मरनेवाला जीव सभी कर्मफलों से शुद्ध हो जाता है और मरने वाले व्यक्ति को परम धाम में कहीं-न-कहीं स्थान मिलता है। यदि मनुष्य सूर्य-किरणों के समक्ष बैठे, तो उसे निश्चित रूप से उष्मा तथा परा-बैंगनी किरणों का लाभ होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान् कभी पक्षपात नहीं करते। सामान्य मनुष्य का यह सोचना गलत होता है कि वे पक्षपात करते हैं।

 
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