श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  1.8.30 
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मन: ।
तिर्यङ्‍नृषिषु याद:सु तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
जन्म—जन्म; कर्म—कर्म; च—तथा; विश्व-आत्मन्—हे विश्व के आत्मा; अजस्य—अजन्मा की; अकर्तु:—निष्क्रिय की; आत्मन:—प्राण-शक्ति की; तिर्यक्—पशु; नृ—मनुष्य; ऋषिषु—ऋषियों में; याद:सु—जल में; तत्—वह; अत्यन्त— वास्तविक, अत्यन्त; विडम्बनम्—भ्रामक, चकराने वाली ।.
 
अनुवाद
 
 हे विश्वात्मा, यह सचमुच ही चकरा देनेवाली बात (विडम्बना) है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह चकरानेवाली बात है।
 
तात्पर्य
 भगवान् की दिव्य लीलाएँ न केवल चकरानेवाली हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं। दूसरे शब्दों में, वे मनुष्य की सीमित चिन्तनशक्ति के लिए अचिन्त्य हैं। भगवान् सारे अस्तित्व में सर्वव्यापी परमात्मा हैं, तो भी पशुओं में शूकर बन कर, मनुष्यों में राम, कृष्ण इत्यादि के रूप में, ऋषियों में नारायण रूप में तथा जलचरों के बीच मत्स्य रूप में प्रकट होते हैं। इतने पर भी उन्हें अजन्मा कहा जाता है और उन्हें कुछ भी नहीं करना होता है। श्रुति-मन्त्र में कहा गया है कि परमब्रह्म को कुछ नहीं करना होता। कोई भी न तो उनके समान है, न उनसे बढक़र है। उनकी शक्तियाँ विविध हैं और उनका हर काम स्वत: ज्ञान, शक्ति तथा कर्म द्वारा सम्पन्न होता है। ये सारे कथन निस्सन्देह यह सिद्ध करते हैं कि भगवान् की लीलाएँ, उनके रूप तथा उनके कार्यकलाप हमारी सीमित चिन्तन-शक्ति के लिए अचिन्त्य हैं। चूँकि वे कल्पना से परे शक्तिमान हैं, अत: उनके लिए हर कार्य सम्भव है। अत: उनके बारे में अनुमान लगा पाना कठिन है और इसीलिए भगवान् का प्रत्येक काम सामान्य मनुष्य को चकरा देने वाला है। उन्हें वैदिक ज्ञान द्वारा नहीं समझा जा सकता, लेकिन उन्हें शुद्ध भक्तों द्वारा सरलता से समझा जा सकता है, क्योंकि वे लोग भगवान् के घनिष्ठ सम्पर्क में रहते हैं। अतएव भक्तगण जानते हैं कि यद्यपि भगवान् पशुओं के बीच प्रकट होते हैं, लेकिन वे न तो पशु हैं, न मनुष्य, न ऋषि, न ही मछली हैं। वे समस्त परिस्थितियों में शाश्वत परमेश्वर हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥