हे कृष्ण, जब आपने कोई अपराध किया था, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने के लिए रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करनेवाला है।
तात्पर्य
यहाँ पर परमेश्वर की लीलाओं से उत्पन्न होने वाले मोह का एक दूसरा वर्णन दिया जा रहा है। भगवान् तो सभी परिस्थितियों में सर्वोपरि हैं, जैसे कि इसकी व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ पर भगवान् का सर्वोपरि होने का एक विशिष्ट उदाहरण है और साथ ही साथ वे अपने शुद्ध भक्तों के साथ उनके अधीन रहकर क्रीड़ा भी कर रहे हैं। भगवान् का शुद्ध भक्त अनन्य प्रेम के कारण ही भगवान की सेवा करता है और ऐसी भक्तिमय सेवा करते हुए वह परमेश्वर की पद स्थिति को भूल जाता है। भगवान् भक्तों की प्रेममयी सेवा का स्वीकार अधिक चाव से करते हैं, जब वह सेवा स्वयंस्फूर्त शुद्ध स्नेह से की जाती है, न कि पूज्य भाव से या प्रशंसा भाव से। सामान्य रूप से भगवान् अपने भक्तों द्वारा आदर की दृष्टि से पूजे जाते हैं, लेकिन भगवान् भक्त से तब विशेष प्रसन्न होते हैं, जब वह शुद्ध प्रेम तथा स्नेहवंश भगवान् को अपने से कम महत्त्वपूर्ण समझता है। भगवान् के मूल-धाम गोलोक वृन्दावन में भगवान् की सारी लीलाओं का आदान प्रदान इसी मनोभाव से होता है। कृष्ण के मित्र उन्हें अपने ही जैसा एक मानते हैं। वे उन्हें आदरणीय महत्त्व के नहीं मानते। भगवान् के माता-पिता (जो सभी शुद्ध भक्त होते हैं) उन्हें केवल एक बालक मानते हैं। भगवान् अपने माता-पिता की प्रताडऩाओं को वैदिक स्तोत्रों द्वारा की गयी स्तुतियों से बढक़र आनन्ददायी मानते हैं। इसी प्रकार वे अपनी प्रेमिकाओं के उलाहनों को वैदिक स्तोत्रों की अपेक्षा अधिक रुचि से सुनते हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधाम में, मूल गोलोक वृन्दावन के दिव्य जगत की नित्य लीलाओं को जनसामान्य के आकर्षण के लिए प्रकट करने के निमित्त उपस्थित थे, तो वे अपनी पालक-माता यशोदा के समक्ष विलक्षण विनीत भाव प्रकट करते रहे। वे अपनी बालोचित क्रीड़ाओं से यशोदा माता द्वारा एकत्र करके रखे गये माखन की मटकी तोडक़र उसका सारा माखन बरवाद कर देते थे और उसे मित्रों तथा संगियों में, यहाँ तक कि वृन्दावन के प्रसिद्ध बन्दरों में भी बाँट दिया करते थे और वे सब भगवान् की इस दानशीलता का लाभ उठाते थे। जब यशोदा यह देखतीं, तो वे शुद्ध प्रेमवश इस दिव्य बालक को अपने दण्ड का दिखावा करतीं। वे रस्सी लेकर धमकातीं कि वे उन्हें बाँध देंगी, जिस प्रकार कि सामान्य घरों में किया जाता है। माता यशोदा के हाथ में रस्सी देखकर, भगवान् अपना सिर नीचे करके सामान्य बालक की भाँति रो पड़ते और उनके अश्रुओं से उनकी सुन्दर आँखों में लगा काजल धुलकर कपोलों पर ढुलक पड़ता। कुन्ती देवी ने भगवान् के इस रूप की पूजा की, क्योंकि वे उनकी परम स्थिति के प्रति सचेष्ट थीं। जिनसे साक्षात् भय भी भयभीत रहता है, वे भगवान् अपनी माता से भयभीत हैं, क्योंकि माता उन्हें सामान्य तरीके से दण्डित करना चाह रही थीं। कुन्ती को भगवान् की श्रेष्ठ स्थिति का पता था, लेकिन यशोदा को नहीं था। अतएव यशोदा की स्थिति कुन्ती की स्थिति से श्रेष्ठ है। माता यशोदा को भगवान् उनके शिशु-रूप में प्राप्त हुए थे और भगवान् ने उन्हें भुलवा दिया था कि उनका बालक साक्षात् भगवान् है। यदि मातायशोदा को भगवान् की दिव्य स्थिति का पता होता, तो वे अवश्य ही भगवान् को दण्डित करते हुए हिचकतीं। लेकिन उन्हें यह स्थिति भुलवा दी गई, क्योंकि भगवान् ममतामयी यशोदा के समक्ष पूर्ण बाल-चापल्य का भाव प्रदर्शित करना चाहते थे। माता तथा पुत्र के बीच प्रेम का यह आदान-प्रदान सहज रूप में सम्पन्न हुआ और कुन्ती इस दृश्य का स्मरण करके मोहित थीं, क्योंकि वे दिव्य पुत्र-प्रेम की सराहना करने के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थीं? परोक्ष रूप में यशोदा की प्रशंसा उनके प्रेम की दिव्य स्थिति के लिए की जा रही है, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान भगवान् को भी अपने प्रिय पुत्र के रूप में वश में कर सकी थीं।
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