श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  1.8.34 
भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थित: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
भार-अवतारणाय—संसार का भार कम करने के लिए; अन्ये—अन्य लोग; भुव:—संसार का; नाव:—नाव; इव— सदृश; उदधौ—समुद्र में; सीदन्त्या:—आर्त, दुखी; भूरि—अत्यधिक; भारेण—भार से; जात:—उत्पन्न; हि—निश्चय ही; आत्म-भुवा—ब्रह्मा द्वारा; अर्थित:—प्रार्थना किये जाने पर ।.
 
अनुवाद
 
 कुछ कहते हैं कि जब यह संसार, भार से बोझिल समुद्री नाव की भाँति, अत्यधिक पीडि़त हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने के लिए अवतरित हुए हैं।
 
तात्पर्य
 सृष्टि के पश्चात् तुरन्त उत्पन्न हुए ब्रह्मा प्रथम जीव हैं तथा नारायण के प्रत्यक्ष पुत्र हैं। गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में नारायण सर्वप्रथम भौतिक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुए। आध्यात्मिक सम्पर्क के बिना पदार्थ से सृष्टि नहीं हो सकती। इस सिद्धान्त का पालन सृष्टि के प्रारम्भ से ही किया जाता रहा है। परम आत्मा ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गये और विष्णु की दिव्य नाभि से अंकुरित हुए कमल पुष्प से प्रथम जीव ब्रह्मा का जन्म हुआ। इसीलिए विष्णु पद्मनाभ कहलाते हैं। ब्रह्मा आत्म-भू कहलाते हैं, क्योंकि इनका जन्म माता लक्ष्मी से सम्पर्क के बिना साक्षात् अपने पिता से हुआ था। लक्ष्मी जी नारायण के निकट उपस्थित थी और भगवान् की सेवा में तन्मय थीं, तो भी लक्ष्मीजी से सम्पर्क किए बिना ही नारायण ने ब्रह्मा को उत्पन्न किया। यही है भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता। जो व्यक्ति मूर्खतावश नारायण को सामान्य जीवों के समान मानता है, उसे इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। नारायण कोई सामान्य जीव नहीं हैं। वे साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान् हैं और उनके दिव्य शरीर के सभी अंगों में सभी इन्द्रियों की सम्पूर्ण शक्तियाँ भरी हुइ होती हैं। सामान्य जीव मैथुन द्वारा ही शिशु को जन्म देता है; उसके पास शिशु उत्पन्न करने के लिए उसे प्राप्त साधन से इतर कोई अन्य उपाय नहीं होता। लेकिन सर्वशक्तिमान होने के कारण, नारायण किसी प्रकार की स्थिति या शक्ति से बँधे नहीं हैं। वे पूर्ण हैं और अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा, अत्यन्त सुगमता के साथ तथा पूरी तरह से कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतएव ब्रह्मा अपने पिता से सीधे उत्पन्न हुए हैं; उन्हें माता के गर्भ में नहीं रहना पड़ा। इसीलिए वे आत्म-भू कहलाये। यही ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड की अगली सारी सृष्टियों के लिए प्रमारी हैं, जो सर्वशक्तिमान की शक्ति द्वारा गौण रूप में प्रतिबिम्बित हैं। इस ब्रह्माण्ड मण्डल के भीतर श्वेतद्वीप नामक एक दिव्य ग्रह है, जो क्षीरोदकशायी विष्णु या परमेश्वर के परमात्मा-रूप का धाम है। जब कभी ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा संकट उत्पन्न होता है, जिसे अधिशासी देवता नहीं सुलझा पाते, तब वे इसके निवारण के लिए ब्रह्माजी के पास जाते हैं। यदि ब्रह्माजी भी इसे नहीं सुलझा पाते, तो वे क्षीरोदकशायी विष्णु के पास परामर्श करते हैं, और उनसे अवतार लेकर समस्या का समाधान करने की प्रार्थना करते हैं। ऐसी समस्या कंस तथा अन्य राजाओं के शासन-काल में उत्पन्न हुई और यह पृथ्वी असुरों के दुष्कर्मों से बोझिल हो उठी। तब अन्य देवताओं-समेत ब्रह्मा ने क्षीरोदक सागर के तट पर जाकर प्रार्थना की। तब उन्हें बताया गया कि कृष्ण जी वसुदेव तथा देवकी के पुत्र-रूप में अवतार लेंगे। अतएव कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् का आविर्भाव ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने से हुआ।
 
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