श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  1.8.35 
भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभि: ।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
भवे—भौतिक संसार में; अस्मिन्—इस; क्लिश्यमानानाम्—कष्ट भोगने-वालों का; अविद्या—अज्ञान; काम—इच्छा; कर्मभि:—सकाम कर्म करने के कारण; श्रवण—सुनने; स्मरण—याद करने; अर्हाणि—पूजन; करिष्यन्—कर सकता है; इति—इस प्रकार; केचन—अन्य लोग ।.
 
अनुवाद
 
 तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि की भक्ति को जागृत करने के लिए प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगनेवाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।
 
तात्पर्य
 श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे प्रत्येक युग में धर्म-पंथ की पुन:स्थापना करने के लिए प्रकट होते हैं। यह धर्म-पंथ भगवान् द्वारा निर्मित किया जाता है। कोई भी व्यक्ति नवीन धर्म-पंथ निर्मित नहीं कर सकता, जैसाकि कुछ महत्त्वाकांक्षी लोगों के लिए यह फैशन बन गइ है। वास्तविक धर्म-पंथ यह है कि भगवान् को परम सत्ता के रूप में स्वीकार करके स्वयंर्स्फूत मानकर, प्रगाढ़ प्रेम में उनकी सेवा की जाय। जीव को तो सेवा करनी ही है, क्योंकि स्वभावत: वह इसी के लिए बना है। जीव का एकमात्र कार्य भगवान् की सेवा करना है। भगवान् महान् हैं और जीव उनके अधीनस्थ हैं। अतएव जीव का कर्तव्य उनकी सेवा करना मात्र है। दुर्भाग्यवश, मोहग्रस्त जीव अज्ञानवश भौतिक इच्छा के कारण इन्द्रियों के दास बन जाते हैं। यह इच्छा अविद्या या अज्ञान कहलाती है। ऐसी इच्छा से ही जीव विकृत विषयी-जीवन पर केन्द्रित भौतिक भोग के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाता है। अतएव जीव परमेश्वर की अध्यक्षता में, विभिन्न लोकों में विभिन्न शरीरों में देहान्तर करते हुए, जन्म-मृत्यु के चक्र में फँस जाता है। अतएव जब तक कोई इस अविद्या की परिघि से बाहर नहीं निकल लेता, तब तक वह जीवन के त्रिविध तापों से मुक्त नहीं हो सकता। यही प्रकृति का नियम है।

फिर भी भगवान् कष्ट भोगनेवाले जीवों पर अपनी अहैतुकी कृपावश उनके समक्ष प्रकट होकर श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, स्तवन, आत्मनिवेदन तथा शरणागति से युक्त भक्ति के सिद्धान्तों को जागृत करते हैं, क्योंकि वे कष्ट भोग रहे जीवों पर इतने अधिक कृपालु हैं कि जितनी जीव आशा भी नहीं रखते। उपर्युक्त में से सारी विधियों या किसी एक विधि को ग्रहण करने से बद्धजीव अविद्या के बन्धन से छूट कर बहिरंगा शक्ति के द्वारा भरमाए गये समस्त भौतिक कष्टों से मुक्त हो जाता है। जीवों पर इस प्रकार की कृपा भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में भगवान् द्वारा प्रदान की गई है।

 
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