के—कौन हैं; वयम्—हम; नाम-रूपाभ्याम्—ख्याति तथा सामर्थ्यरहित; यदुभि:—यदुओं के; सह—साथ; पाण्डवा:— तथा पाण्डवगण; भवत:—आपकी; अदर्शनम्—अनुपस्थिति; यर्हि—मानो; हृषीकाणाम्—इन्द्रियों का; इव—सदृश; ईशितु:—जीव का ।.
अनुवाद
जिस तरह आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है, उसी तरह यदि आप हमारे ऊपर कृपा-दृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं समेत हमारा यश तथा गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएँगी।
तात्पर्य
कुन्ती देवी को पूरी तरह ज्ञात है कि पाण्डवों का अस्तित्व एक-मात्र श्रीकष्ण के कारण है। निस्सन्देह, पाण्डव अपने नाम तथा ख्याति में पूरी तरह प्रतिष्ठित थे और धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर द्वारा उनका मार्गदर्शन हो रहा था; यदुगण मित्र थे, लेकिन श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन के बिना उन सबका कोई अस्तित्व नहीं था, जिस प्रकार चेतना के बिना शरीर की सारी इन्द्रियाँ व्यर्थ रहती हैं। किसी को भी परमेश्वर
की कृपा द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त किये बिना अपनी प्रतिष्ठा, शक्ति तथा यश का गर्व नहीं होना चाहिए। जीव सदैव आश्रित हैं और अनन्तिम आश्रयदाता भगवान् स्वयं ही हैं। अतएव, भले ही हम अपने भौतिक ज्ञान की उन्नति द्वारा, कितने ही प्रतिगामी भौतिक साधन क्यों न जुटा लें, लेकिन भगवान् के मार्गदर्शन बिना ऐसे सारे आविष्कार, चाहे वे कितने प्रबल एवं प्रतिक्रियाकारी क्यों न हों, बंटाधार हो जाते हैं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥