श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  1.8.39 
नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितै: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; इयम्—यह हमारा राज्य; शोभिष्यते—सुन्दर लगेगा; तत्र—तब; यथा—जैसा अब है, इस रूप में; इदानीम्— कैसे; गदाधर—हे कृष्ण; त्वत्—आपके; पदै:—चरणों के द्वारा; अङ्किता—अंकित; भाति—शोभायमान हो रही है; स्व लक्षण—आपके चिह्नों से; विलक्षितै:—चिह्नों से ।.
 
अनुवाद
 
 हे गदाधर (कृष्ण), इस समय हमारे राज्य में आपके चरण-चिह्नों की छाप पड़ी हुई है, और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जायेगा।
 
तात्पर्य
 भगवान् के चरणों में कुछ विशिष्ट चिह्न होते हैं, जिनके कारण वे अन्यों से भिन्न हैं। भगवान् के चरणतल (तलवे) में ध्वजा, वज्र, अंकुश, छत्र, कमल, चक्र आदि चिह्न बने रहते हैं। जहाँ-जहाँ भगवान् चलते हैं, वहाँ की नरम भूमि की रज पर ये चिह्न अंकित होते जाते हैं। अतएव जब श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ रह रहे थे, तो हस्तिनापुर की भूमि इस प्रकार से अंकित हो गई थी और इन शुभ चिह्नों के कारण पाण्डवों का राज्य फूल-फल रहा था। कुन्ती देवी ने इन प्रतिष्ठित लक्षणों की ओर संकेत किया और वे भगवान् की अनुपस्थिति में दुर्भाग्य के प्रति भयातुर थी।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥