श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  1.8.4 
सान्‍त्वयामास मुनिभिर्हतबन्धूञ्शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन्न प्रतिक्रियाम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
सान्त्वयाम् आस—ढाढस बँधाया; मुनिभि:—वहाँ पर उपस्थित मुनियों समेत; हत-बन्धून्—जिनके मित्र तथा सम्बन्धी मारे गये थे; शुचार्पितान्—सभी को धक्का पहुँचा हुआ; भूतेषु—जीवों पर; कालस्य—सर्वशक्तिमान के परम नियम की; गतिम्—प्रतिक्रिया; दर्शयन्—दिखलाया; न—नहीं; प्रतिक्रियाम्—उपचार ।.
 
अनुवाद
 
 सर्वशक्तिमान के कठोर नियमों तथा जीवों पर उनकी प्रतिक्रियाओं का दृष्टान्त देते हुए, भगवान् श्रीकृष्ण तथा सारे मुनियों ने समस्त स्तब्ध एवं शोकार्त-जनों को ढाढ़स बँधाया।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर के आदेशों के अधीन प्रकृति के कठोर नियम किसी जीव के द्वारा बदले नहीं जा सकते। सारे जीव निरन्तर सर्वशक्तिमान भगवान् के अधीन रहते हैं। भगवान् ही सारे नियम तथा आदेश बनाते हैं, जिन्हें सामान्य रूप से धर्म कहते हैं। कोई भी व्यक्ति धार्मिक नियम नहीं बना सकता। भगवान् के आदेशों का पालन करना ही प्रामाणिक धर्म है। भगवान् के ये आदेश भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से घोषित किये गये हैं। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह केवल उनका या उनके नियमों का अनुसरण करे। इससे वह भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार से सुखी हो सकेगा। जब तक हम इस भौतिक जगत में हैं, तब तक हमारा यह कर्तव्य है कि हम भगवान् के आदेशों का पालन करें और यदि भगवत्कृपा से हम इस भौतिक संसार के बन्धन से छूट जाँय, तो भी अपनी मुक्त अवस्था में हम भगवान् की प्रेमामय दिव्य सेवा कर सकते हैं। अपनी भौतिक अवस्था में आध्यात्मिक दृष्टि के अभाव में हम न तो अपने आप को देख पाते हैं, न ही भगवान् को। लेकिन जब हम भौतिक आसक्ति से मुक्त होकर अपने मूल आध्यात्मिक स्वरूप को प्राप्त करते हैं, तो हम अपने आपको तथा भगवान् को साक्षात् देख सकते हैं। अतएव मुक्ति का अर्थ है, जीवन की भौतिक अवधारणा को त्याग कर मूल आध्यात्मिक स्थिति को पुन: धारण करना। इस तरह यह मनुष्य-जीवन विषेश रुप से अपने आपको इसी आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के योग्य बनाने के निमित्त है। दुर्भाग्यवश, हम भ्रामक भौतिक शक्ति के वश में होकर कुछ वर्षों के इस क्षणिक जीवन को ही स्थायी मान बैठते हैं और इस तरह से माया द्वारा उत्पन्न छद्म स्वरूप वाले तथाकथित देश, घर, भूमि, सन्तान, पत्नी, समुदाय, सम्पत्ति आदि के स्वामित्व से भ्रमित हो जाते हैं। इस तरह, हम माया के इशारे पर इस छद्म स्वामित्व की रक्षा के लिए एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा हम यह अनुभव कर सकते हैं कि हमें इस भौतिक साज-सामान से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऐसा होने पर हम तुरन्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाते हैं। इस संसार की भ्रान्तियों का ऐसा स्पष्टीकरण भगवद्भक्तों की संगति से तुरन्त ही होता है, क्योंकि वे मोहग्रस्त हृदय के भीतर दिव्य ध्वनि को प्रविष्ट कराने में सक्षम होते हैं और इस तरह से मनुष्य को समस्त शोक तथा मोह से मुक्त कराने वाले हैं। संक्षेप में यह उन लोगों के लिए सान्त्वना है, जो जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि आदि के रूप में प्रकट होनेवाले कठोर भौतिक नियमों के फलों से प्रभावित होते हैं। युद्ध से पीडि़त कुरुवंश के सदस्य मृत्यु की समस्या से शोकातुर थे और भगवान् ने उनको ज्ञान के आधार पर ढाढ़स बँधाया।
 
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