श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  1.8.41 
अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्‍नेहपाशमिमं छिन्धि द‍ृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—अत:; विश्व-ईश—हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-आत्मन्—हे ब्रह्माण्ड के आत्मा; विश्व-मूर्ते—हे विश्व-रूप; स्वकेषु—मेरे स्वजनों में; मे—मेरे; स्नेह-पाशम्—स्नेह बन्धन को; इमम्—इस; छिन्धि—काट डालो; दृढम्—कड़े; पाण्डुषु—पाण्डवों के लिए; वृष्णिषु—वृष्णियों के लिए भी ।.
 
अनुवाद
 
 अत: हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्व-रूप, कृपा करके मेरे स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह-बन्धन को काट डालें।
 
तात्पर्य
 भगवान् का शुद्ध भक्त भगवान् से अपने लिए कुछ भी माँगने में लजाता है। लेकिन गृहस्थों को कभी-कभी बाध्य होकर भगवान् से कुछ कथा की याचना करनी पड़ती हैं, क्योंकि वे पारिवारिक स्नेह की ग्रंथि से बँधे होते हैं। श्रीमती कुन्ती देवी इस तथ्य से सचेत थीं, अतएव उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि वे उनके स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रेमपाश को काट दें। पाण्डव उनके अपने पुत्र थे और वृष्णि उनके पितृ-कुल के सदस्य थे। कृष्ण इन दोनों परिवारों से समान रूप से सम्बन्धित थे। दोनों ही परिवारों को भगवान् की सहायता की आवश्यकता थी, क्योंकि दोनों ही भगवान् के आश्रित भक्त थे। श्रीमती कुन्ती देवी की इच्छा थी कि श्रीकृष्ण उनके पुत्रों, अर्थात् पाण्डवों के साथ रहें, लेकिन कृष्ण के ऐसा करने से कुन्ती के पितृ-कुल के लोग इस लाभ से वंचित रह जाते। यह सब पक्षपात कुन्ती के मन को दुख देनेवाला था, अतएव उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि यह स्नेह-बन्धन विच्छिन्न हो जाय।

शुद्ध भक्त अपने परिवार के सीमित स्नेह-बन्धन को विच्छिन्न करके समस्त विस्मृत आत्माओं के लिए अपनी भक्तिमय सेवा का विस्तार करता है। इसके जीवन्त उदाहरण षड् गोस्वामी हैं, जिन्होंने भगवान् चैतन्य के पथ का अनुसरण किया। वे सभी अत्यन्त प्रबुद्ध एवं सुसंस्कृत धनी, सवर्ण जातियों के थे, लेकिन जनसाधारण के कल्याण के लिए वे अपने-अपने साधनयुक्त घरों को त्याग कर संन्यासी बन गये। समस्त पारिवारिक स्नेह को छिन्न करने का अर्थ है कार्यक्षेत्र को विस्तृत करना। ऐसा किये बिना कोई न तो ब्राह्मण बनने के योग्य हो सकता है, न राजा, न जनता का नेता, न भगवद्भक्त। भगवान् ने आदर्श राजा के रूप में इसका दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। श्री रामचन्द्र ने आदर्श राजा के गुणों को प्रकट करने के लिए अपनी प्रिय पत्नी से स्नेह-बन्धन छिन्न कर लिया था।

ब्राह्मण, भक्त, राजा या जननेता को अपने-अपने कर्तव्य पालन में उदारचेता होना चाहिए। श्रीमती कुन्तीदेवी इस तथ्य से अवगत थीं और अबला होने के कारण, उन्होंने पारिवारिक स्नेह के बन्धन को विछिन्न कर देने के लिए प्रार्थना की। भगवान् को विश्वेश या विश्वात्मा कहकर सम्बोधित किया गया है, जो पारिवारिक प्रेम की कठिन ग्रंथि को काटने में उनकी सर्वशक्तिमयी क्षमता को बतानेवाला है। इसीलिए कभी-कभी ऐसा अनुभव किया जाता है कि निर्बल भक्त के प्रति विशेष आकर्षण के कारण, भगवान् अपनी अपार शक्ति द्वारा नियोजित परिस्थितियों द्वारा पारिवारिक स्नेह को छिन्न करते हैं। ऐसा करके वे भक्त को अपने ऊपर पूर्ण रूप से आश्रित बनाकर उसके भगवद्धाम वापस जाने का मार्ग साफ कर देते हैं।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥