श्री-कृष्ण—हे कृष्ण; कृष्ण-सख—हे अर्जुन के मित्र; वृष्णि—वृष्णि कुल के; ऋषभ—हे प्रमुख; अवनि—पृथ्वी; ध्रुक्—विप्लवी; राजन्य-वंश—राजाओं का वंश; दहन—हे विनाशकर्ता; अनपवर्ग—बिना अवनति के; वीर्य—पराक्रम; गोविन्द—हे गोलोक के स्वामी; गो—गौवों के; द्विज—ब्राह्मणों के; सुर—देवताओं के; अर्ति-हर—दुख दूर करने के लिए; अवतार—हे अवतार लेनेवाले; योग-ईश्वर—हे योग के स्वामी; अखिल—सम्पूर्ण जगत के; गुरो—हे गुरु; भगवन्—हे समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; नम: ते—आपको नमस्कार है ।.
अनुवाद
हे कृष्ण, हे अर्जुन के मित्र, हे वृष्णिकुल के प्रमुख, आप उन समस्त राजनीतिक पक्षों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलानेवाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं। आपमें सारी योग-शक्तियाँ हैं और आप समस्त विश्व के उपदेशक (गुरु) हैं। आप सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ।
तात्पर्य
यहाँ पर श्रीमती कुन्तीदेवी ने परम भगवान् श्रीकृष्ण का सार प्रस्तुत किया है। सर्वशक्तिमान भगवान् का अपना नित्य दिव्य धाम है, जहाँ वे सुरभी गायों के पालन में व्यस्त रहते हैं। वहाँ सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं। वे इस भौतिक जगत् में अपने भक्तों को उबारने तथा राजनीतिक दलों के उपद्रवकारी तत्त्वों एवं उपद्रवकारी शासकों को विनष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं। वे अपनी असीम शक्तियों से सृजन, पालन तथा संहार करते हैं, फिर भी वे सदैव शौर्य से पूर्ण रहते हैं और उनकी शक्ति कभी क्षीण नहीं होती। वे गायों, ब्राह्मणों तथा भगवद्भक्तों पर विशेष ध्यान देते हैं, क्योंकि जीवों के सामान्य कल्याण के लिए ये महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
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