इस तरह श्रीमती कुन्तीदेवी की प्रार्थनाएं स्वीकार करने के बाद भगवान् ने हस्तिनापुर के राजमहल में प्रवेश करके अन्य स्त्रियों को अपने प्रस्थान की सूचना दी। लेकिन उन्हें प्रस्थान करते देख, राजा युधिष्ठिर ने उन्हें रोक लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे याचना की।
तात्पर्य
जब भगवान् ने द्वारका जाने का निश्चय कर लिया, तो कोई भी उन्हें हस्तिनापुर में नहीं रोक सकता था, लेकिन राजा युधिष्ठिर का यह सरल अनुरोध कि वे कुछ दिनों तक और रह जाँए, इसका तत्काल प्रभाव पड़ा। इससे पता चलता है कि राजा युधिष्ठिर की शक्ति प्रेमयुक्त स्नेह की थी जिसे भगवान् इनकार नहीं कर सके। इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान् केवल प्रेममयी सेवा से जीते जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं। वे अपने समस्त व्यवहारों में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं, लेकिन अपने शुद्ध भक्तों के स्निग्घ प्रेम का ऋण वे स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं।
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