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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  1.8.48 
अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मन: ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्‍व्यो मेऽक्षौहिणीर्हता: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—हाय; मे—मेरा; पश्यत—जरा देखो तो; अज्ञानम्—अज्ञान; हृदि—हृदय में; रूढम्—स्थित; दुरात्मन:—पापी का; पारक्यस्य—अन्यों के लिए; एव—निश्चय ही; देहस्य—शरीर का; बह्व्य:—अनेकानेक; मे—मेरे द्वारा; अक्षौहिणी:— अक्षौहिणी सेनाए; हता:—मारी गई ।.
 
अनुवाद
 
 राजा युधिष्ठिर ने कहा : हाय, मैं सबसे पापी मनुष्य हूँए! जरा मेरे हृदय को तो देखो, जो अज्ञान से पूर्ण है! यह शरीर, जो अन्तत: परोपकार के लिए होता है, उसने अनेकानेक अक्षौहिणी सेनाओं का वध करा दिया है।
 
तात्पर्य
 २१,८७० रथों, २१,८७० हाथियों, १,०९,६५०, पैदल तथा ६५, ६०० घुड़सवार का व्यूह अक्षौहिणी कहलाता है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कई अक्षौहिणी सेना मारी गई थी। महाराज युधिष्ठिर, संसार के सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा राजा होने के कारण, इतनी भारी संख्या में जीवों के वध का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हैं, क्योंकि यह युद्ध उन्हें ही सिंहासनारूढ़ कराने के लिए लड़ा गया था। यह शरीर आखिर परोपकार के लिए है। जब तक शरीर में प्राण रहता है, तब तक यह परोपकार के लिए होता है और मरने के बाद यही कुत्तों तथा शृगालों द्वारा या कीड़ों द्वारा खा लिया जाता है। वे खेदग्रस्त हुए कि इस नश्वर शरीर के लिए इतना बड़ा नर-संहार किया।
 
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