बालद्विजसुहृन्मित्रपितृभ्रातृगुरुद्रुह: ।
न मे स्यान्निरयान्मोक्षो ह्यपि वर्षायुतायुतै: ॥ ४९ ॥
शब्दार्थ
बाल—लडक़े; द्वि-ज—दो बार जन्म लेनेवाले; सुहृत्—शुभचिन्तक; मित्र—मित्र; पितृ—चाचा-ताऊ; भ्रातृ—भाई; गुरु—शिक्षक का; द्रुह:—मारनेवाला; न—कभी नहीं; मे—मेरा; स्यात्—होगा; निरयात्—नरक से; मोक्ष:—मुक्ति; हि—निश्चय ही; अपि—यद्यपि; वर्ष—साल; अयुत—लाखों; आयुतै:—जोड़े जाने पर ।.
अनुवाद
मैंने अनेक बालकों, ब्राह्मणों, शुभ-चिन्तकों, मित्रों, चाचा-ताउओं, गुरुओं तथा भाइयों का वध किया है। भले ही मैं लाखों वर्षों तक जीवित रहूँ, लेकिन मैं इन सारे पापों के कारण मिलनेवाले नरक से कभी भी छुटकारा नहीं पा सकूँगा।
तात्पर्य
जब भी युद्ध होता है, तब अनेक निर्दोष प्राणी—यथा बालक, ब्राह्मण, स्त्रियाँ, जिनका वध सर्वाधिक पापपूर्ण माना गया है, वे भी मारे जाते हैं। ये सब निर्दोष प्राणी हैं और समस्त परिस्थितियों में इनका वध शास्त्रों द्वारा वर्जित है। महाराज युधिष्ठर को इस सामूहिक संहार का पता था। इसी प्रकार दोनों ही दलों में मित्र, चाचा-ताऊ तथा शिक्षक थे और वे सभी मारे गये। उनके लिए ऐसे नरसंहार का सोचना ही भयावह लगता था, अतएव वे लाखों-करोड़ों वर्षों तक नरक में पड़े रहने का विचार कर रहे थे।
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