श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  1.8.52 
यथा पङ्केन पङ्काम्भ: सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैर्मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; पङ्केन—कीचड़ से; पङ्क-अम्भ:—कीचड़-मिश्रित जल; सुरया—मदिरा से; वा—अथवा; सुराकृतम्—मदिरा के स्पर्श से उत्पन्न अशुद्धि; भूत-हत्याम्—पशुओं की हत्या; तथा—उसी प्रकार; एव—निश्चय ही; एकाम्—एक; न—कभी नहीं; यज्ञै:—यज्ञों के द्वारा; मार्ष्टुम्—प्रायश्चित्त करना; अर्हति—सम्भव है ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार गंदे पानी को कीचड़ में डालकर छाना नहीं जा सकता, अथवा जैसे मदिरा से मलिन हुए पात्र को मदिरा से स्वच्छ नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार नर-संहार का प्रायश्चित पशुओं की बलि देकर नहीं किया जा सकता।
 
तात्पर्य
 अश्वमेध-यज्ञ या गोमेध यज्ञ, जिनमें घोड़े या साँड़ की बलि दी जाती है, वास्तव में पशुओं के वध करने के लिए नहीं थे। भगवान् चैतन्य ने बतलाया है कि यज्ञ की वेदी पर बलि किये गये ऐसे पशुओं को पुन: जीवनदान दिया जाता था। यह वेदों के मंत्रों की क्षमता को सिद्ध करने के लिए किया जाता था। निश्चय ही वेदों के मन्त्रों का सही ढंग से पाठ करने पर यज्ञकर्ता पापों से मुक्त हो जाता है, लेकिन ऐसे यज्ञ यदि अनुपयुक्त विधि से अक्षम लोगों द्वारा किये जाते हैं, तो वे पशु-बलि के दोषी बनते हैं। कलह तथा दम्भ के इस युग में ठीक से यज्ञ सम्पन्न करवाना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा यज्ञ सम्पन्न करानेवाले दक्ष ब्राह्मणों का अभाव है। अतएव महाराज युधिष्ठिर कलियुग में यज्ञ सम्पन्न करने का संकेत देते हैं। कलियुग के लिए एकमात्र संस्तुत यज्ञ हरिनाम यज्ञ है, जिसका सूत्रपात भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने किया। लेकिन किसी को पशु-वध करने के बाद ऐसा हरिनाम यज्ञ सम्पन्न करके प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। भगवान् के भक्त कभी भी स्वार्थवश पशुवध नहीं करते, लेकिन वे क्षत्रिय कर्म करने से कभी पीछे नहीं हटते, जैसा भगवान् ने अर्जुन को आदेश दिया था। अतएव जब प्रत्येक वस्तु भगवान् की इच्छा के लिए की जाती है, तो सारा काम बन जाता है। ऐसा करना भक्तों के लिए ही सम्भव है।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अन्तर्गत “कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा” नामक आठवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए
 
 
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