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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 8: महारानी कुन्ती द्वारा प्रार्थना तथा परीक्षित की रक्षा  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  1.8.6 
याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकै: ।
तद्यश: पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
याजयित्वा—सम्पन्न करके; अश्वमेधै:—अश्वमेध यज्ञों के द्वारा, जिनमें घोड़े की बलि दी जाती है; तम्—उनको (राजा युधिष्ठिर को); त्रिभि:—तीन; उत्तम—सर्वश्रेष्ठ; कल्पकै:—समुचित सामग्रियों के द्वारा तथा योग्य पुरोहितों द्वारा सम्पन्न; तत्—वह; यश:—ख्याति; पावनम्—यशस्वी; दिक्षु—समस्त दिशाएँ; शत-मन्यो:—इन्द्र, जिसने ऐसे एक सौ यज्ञ किये थे; इव—सदृश; अतनोत्—फैल गयी ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से तीन श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कराये और इस तरह उनकी पवित्र ख्याति सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र की तरह ही सर्व दिशाओं में फैल गई।
 
तात्पर्य
 यह महाराज युधिष्ठिर द्वारा अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये जाने की भूमिका जैसी है। स्वर्ग के राजा इन्द्र के साथ महाराज यधिष्ठिर की तुलना महत्त्वपूर्ण है। स्वर्ग का राजा अपने ऐश्वर्य में महाराज युधिष्ठिर की अपेक्षा हजारों गुना बढक़र है, तो भी महाराज यधिष्ठिर की ख्याति कम न थी। इसका कारण यह है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान् के शुद्ध भक्त थे और भगवत्कृपा से ही वे स्वर्ग के राजा इन्द्र के तुल्य थे, यद्यपि उन्होंने केवल तीन यज्ञ सम्पन्न किये थे, जबकि स्वर्ग के राजा ने पूरे सौ यज्ञ किये थे। यह भगवद्भक्त का विशेषाधिकार है। भगवान् सबों पर समभाव रखते हैं, लेकिन भगवद्भक्त अधिक महिमावान होता है, क्योंकि वह सदैव महानतम के सम्पर्क में रहता है। सूर्य की किरणें समान रूप से विपरीत होती हैं, तो भी कुछ ऐसे स्थान रह जाते हैं जहाँ सदैव अँधेरा रहता है। यह सूर्य के कारण नहीं है, अपितु ग्राह्यता की कमी के कारण है। इसी प्रकार जो भगवान् के शत-प्रतिशत भक्त हैं, उन्हें भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है, यद्यपि जो सर्वत्र सदैव समान रूप से वितरित होती है।
 
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