श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  1.9.12 
अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद्यूयं धर्मनन्दना: ।
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रया: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—अहो; कष्टम्—कितना कष्ट; अहो—ओह; अन्याय्यम्—कितना अन्याय; यत्—क्योंकि; यूयम्—तुम सभी; धर्म नन्दना:—साक्षात् धर्म के पुत्र; जीवितुम्—जीवित रहने के लिए; न—कभी नहीं; अर्हथ—योग्य हो; क्लिष्टम्—कष्ट; विप्र—ब्राह्मण; धर्म—धर्म; अच्युत—ईश्वर द्वारा; आश्रया:—सुरक्षित होकर ।.
 
अनुवाद
 
 भीष्मदेव ने कहा : ओह, तुम लोगों ने, साक्षात् धर्म के पुत्र होते हुए भी, कितनी यातनाएँ तथा कितना अन्याय सहा है। उन कष्टों के अन्तर्गत तुम सबको जीवित रहने की आशा न थी, फिर भी ब्राह्मणों, ईश्वर तथा धर्म ने तुम्हारी रक्षा की है।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर कुरुक्षेत्र युद्ध के महान नरसंहार से अत्यन्त विचलित थे। भीष्मदेव यह समझ गये। इसीलिए उन्होंने सर्वप्रथम महाराज युधिष्ठिर की घोर विपत्तियों का उल्लेख किया। वे अन्याय के कारण ही इस कठिनाई में पड़े थे और कुरुक्षेत्र का युद्ध इसी अन्याय के विरोध में लड़ा गया था। इसीलिए उन्हें इस घोर नरसंहार के लिए शोक नहीं करना चाहिए था। वे पाण्डवों को विशेष तौर पर यह बताना चाह रहे थे कि वे लोग सदा ही ब्राह्मणों, भगवान् तथा धर्म द्वारा रक्षित होते रहे हैं। अतएव जब तक वे इन तीनों महत्त्वपूर्ण साधनों के द्वारा सुरक्षित हैं, तब तक निराश होने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार भीष्मदेव ने महाराज को उनकी निराशा मिटाने के लिए प्रोत्साहित किया। जब तक कोई मनुष्य भगवान् की इच्छा के साथ पूरा तालमेल बनाए रखता है, प्रामाणिक ब्राह्मणों तथा वैष्णवों द्वारा निर्देशित होता है और धार्मिक सिद्धान्तों का दृढता से पालन करता है, तब तक उसके निराश होने का कोई कारण नहीं हैं, भले ही जीवन की परिस्थितियाँ कितनी ही विषम क्यों न हों। इस परम्परा में एक महान् सत्ता होने के नाते भीष्मदेव पाण्डवों को यह बात समझाना चाहते थे।
 
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